________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक घोषणा करते हुए यावत् पूर्ववत् कथन करना । इस प्रकार शपथ से मुक्त हुए । इसके पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक के प्रति पूजा-सत्कार (की भावना) को स्थिरीकरण करने के लिए मंखलिपुत्र गोशालक के बाएं पैर में बंधी मूंज की रस्सी खोल दी और हालाहला कुम्भारिन की दुकान के द्वार भी खोल दिए । फिर मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर को सुगन्धित गन्धोदक से नहलाया, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णनानुसार यावत् महान् ऋद्धि-सत्कार-समुदाय के साथ मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर का निष्क्रमण किया। सूत्र - ६५५
तदनन्तर किसी दिन भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से नीकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल उस समय मेंढिकग्राम नगर था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक उद्यान था । यावत् पृथ्वी-शिलापट्टक था, उस शालकोष्ठक उद्यान के निकट एक महान् मालुकाकच्छ था वह श्याम, श्यामप्रभावाला, यावत् महामेघ मान था, पत्रित, पुष्पित, फलित और हरियाली से अत्यन्त लहलहाता हुआ, वनश्री से अतीव शोभायमान रहता था। उस मेंढिकग्राम नगरमें रेवती गाथापत्नी रहती थी । वह आढ्य यावत् अपराभूत थी।
किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी क्रमशः विचरण करते हए मेंढिकग्राम नगर के बाहर, जहाँ शालकोष्ठक उद्यान था, वहाँ पधारे; यावत् परीषद् वन्दना करके लौट गई । उस समय श्रमण भगवान महावीर के शरीर में महापीडाकारी व्याधि उत्पन्न हई, जो उज्ज्वल यावत् दुरधिसा थी। उसने पित्तज्वर से सारे शरीर को व्याप्त कर लिया था, और शरीर में अत्यन्त दाह होने लगी। तथा उन्हें रक्त-युक्त दस्तें भी लगने लगीं। भगवान के शरीर की ऐसी स्थिति जानकर चारों वर्ण के लोग इस प्रकार कहने लगे-श्रमण भगवान महावीर मंखलिपुत्र गोशालक की तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर एवं दाह से पीड़ित होकर छह मास के अन्दर छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु प्राप्त करेंगे।
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के एक अन्तेवासी सिंह नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे । वे मालुकाकच्छ के निकट निरन्तर छठ-छठ तपश्चरण के साथ अपनी दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर यावत् आतापना लेते थे । उस समय की बात है, जब सिंह अनगार ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त हो रहे थे; तभी उन्हें इस प्रकार का आत्मगत यावत् चिन्तन उत्पन्न हुआ-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के शरीर में विपुल रोगांतक प्रकट हुआ, जो अत्यन्त दाहजनक है, इत्यादि । तब अन्यतीर्थिक कहेंगे- वे छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गए । इस प्रकार के इस महामानसिक मनोगत दुःख से पीड़ित बने हुए सिंह अनगार आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे । फिर वे मालुकाकच्छ में आए और जोर-जोर से रोने लगे । (उस समय) श्रमण भगवान महावीर ने कहा- हे आर्यो ! आज मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्र यावत् विनीत सिंह अनगार, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् कहना; यावत् अत्यन्त जोर-जोर से रो रहा है। इसलिए, हे आर्यो ! तुम जाओ और सिंह अनगार को यहाँ बुला लाओ
श्रमण भगवान महावीर ने जब उन श्रमण-निर्ग्रन्थों से इस प्रकार कहा, तो उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । फिर भगवान् महावीर के पास से मालकोष्ठक उद्यान से नीकलकर, वे मालुकाकच्छ वन में, जहाँ सिंह अनगार था, वहाँ आए और सिंह अनगार से कहा- हे सिंह ! धर्माचार्य तुम्हें बुलाते हैं। तब सिंह अनगार उन श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् पर्युपासना करने लगे। श्रमण भगवान महावीर ने कहा- हे सिंह ! ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए तुम्हें इस प्रकार की चिन्ता उत्पन्न हुई यावत् तुम फूट-फूट कर रोने लगे, तो हे सिंह ! क्या यह बात सत्य है ?' 'हाँ, भगवन् ! सत्य है । हे सिंह ! मंखलिपुत्र गोशालक के तपतेज द्वारा पराभूत होकर मैं छह मास के अन्दर, यावत् काल नहीं करूँगा । मैं साढ़े पन्द्रह वर्ष तक गन्धहस्ती के समान जिन रूप में विचरूँगा । हे सिंह! तुम मेंढिकग्राम नगर में रेवती गाथापत्नी के घर जाओ और वहाँ रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किए हैं, उनसे मुझे प्रयोजन नहीं है, किन्तु उसके यहाँ मार्जार नामक वायु को शान्त करने के लिए जो बिजौरापाक है, उसे ले आओ । उसीसे मुझे प्रयोजन है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 75