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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक आम्रफल की छाल थी। हल्ला का आकार कैसा होता है ? (अयंपुल) हल्ला का आकार बाँस के मूल के आकार जैसा होता है । (उन्मादवश गोशालक ने कहा) हे वीरो ! वीणा बजाओ ! वीरो ! वीणा बजाओ। गोशालक से अपने प्रश्न का इस प्रकार समाधान पाकर आजीविकोपासक अयंपुल अतीव हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् हृदय में अत्यन्त आनन्दित हुआ । फिर उसने मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार किया; कईं प्रश्न पूछे, अर्थ ग्रहण किया । फिर वह उठा और पुनः मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार करके यावत् अपने स्थान पर लौट गया।
गोशालक ने अपना मरण (निकट) जानकर आजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और कहा-हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त हुआ जानकर तुम लोग मुझे सुगन्धित गन्धोदक से स्नान कराना, फिर रोएंदार कोमल गन्धकाषायिक वस्त्र से मेरे शरीर को पोंछना, सरस गोशीर्ष चन्दन से मेरे शरीर के अंगों पर विलेपन करना। हंसवत् श्वेत महामूल्यवान् पटशाटक मुझे पहनाना । मुझे समस्त अलंकारों से विभूषित करना । मुझे हजार पुरुषों से उठाई जाने योग्य शिबिका में बिठाना । शिबिकारूढ़ करके श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् महापथों में उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए कहना-यह मंखलिपुत्र गोशालक जिन, जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरण कर इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थंकर होकर सिद्ध हआ है, यावत् समस्त दुःखों से रहित हआ है । इस प्रकार ऋद्धि और सत्कार के साथ मेरे शरीर का नीहरण करना । उन आजीविक स्थविरों ने गोशालक की बात को विनयपूर्वक स्वीकार किया। सूत्र-६५३
इसके पश्चात् जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब मंखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ । उसके साथ ही उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ-मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिन-प्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा हूँ। मैं मंखलिपुत्र गोशालक श्रमणों का घातक, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक, आचार्य-उपाध्याय का अपयश करने वाला, अवर्णवाद-कर्ता और अपकीर्तिकर्ता हूँ। मैं अत्यधिक असद्भावनापूर्ण मिथ्यात्वाभिनिवेश से, अपने आपको, दूसरों को तथा स्वपर-उभय को व्युद्ग्राहित करता हुआ, व्युत्पादित करता हुआ विचरा, और फिर अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर, पित्तज्वराक्रान्त तथा दाह से जलता हुआ सात रात्रि के अन्त में छद्मस्थ अवस्था में ही काल करूँगा । वस्तुतः श्रमण भगवान महावीर ही जिन हैं, और जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करते हैं।
(गोशालक ने अन्तिम समय में) इस प्रकार सम्प्रेक्षण किया। फिर उसने आजीविक स्थविरों को बुलाया, अनेक प्रकार की शपथों से युक्त करके इस प्रकार कहा- मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, फिर भी जिनप्रलापी तथा जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हआ विचरा । मैं वही मंखलिपुत्र गोशालक एवं श्रमणों का घातक हँ, यावत छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाऊंगा । श्रमण भगवान महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं, यावत् स्वयं को जिन शब्द से प्रकट करते हुए विहार करते हैं । अतः हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त जानकर मेरे बाएं पैर को मूंज की रस्सी से बाँधना और तीन बार मेरे मुँह में थूकना । तदनन्तर शृंगाटक यावत् राजमार्गों में इधर-उधर घसीटते हुए उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना-देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है, किन्तु वह जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकाशित करता हुआ विचरा है । यावत् श्रमण भगवान महावीर ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं। इस प्रकार वहती अऋद्धि पूर्वक मेरे मृत शरीर का नीहरण करना; यों कहकर गोशालक कालधर्म को प्राप्त हुआ। सूत्र-६५४
__ तदनन्तर उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक को कालधर्म-प्राप्त हुआ जानकर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के द्वार बन्द कर दिए । फिर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के ठीक बीचों बीच श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया। फिर मंखलिपुत्र गोशालक के बाएं पैर को मूंज की रस्सी से बाँधा । तीन बार उसके मुख में थूका । फिर उक्त चित्रित की हुई श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् राजमार्गों पर इधर-उधर घसीटते हुए मन्द-मन्द स्वर से उद्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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