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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक निरुत्तर कर दिया गया है, जिससे गोशालक अत्यन्त कुपित यावत् मिसमिसायमान होकर क्रोध से प्रज्वलित हो उठा, किन्तु श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को तनिक भी पीड़ित या उपद्रवित नहीं कर सका एवं उनका छविच्छेद नहीं कर सका, तब कुछ आजीविक स्थविर गोशालक मंखलिपुत्र के पास से अपने आप ही चल पड़े । वहाँ से चलकर वे श्रमण भगवान महावीर के पास आ गए । श्रमण भगवान महावीर की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की और उन्हें वन्दना-नमस्कार किया। तत्पश्चात् वे श्रमण भगवान महावीर का आश्रय स्वीकार करके विचरण करने लगे। कितने ही ऐसे आजीविक स्थविर थे, जो मंखलिपुत्र गोशालक का आश्रय ग्रहण करके ही विचरते रहे।
मंखलिपुत्र गोशालक जिस कार्य को सिद्ध करने के लिए एकदम आया था, उस कार्य को सिद्ध नहीं कर सका, तब वह चारों दिशाओं में लम्बी दृष्टि फैंकता हआ, दीर्घ और उष्ण निःश्वास छोड़ता हुआ, दाढ़ी के बालों को नोचता हुआ, गरदन के पीछे के भाग को खुजलाता हुआ, बैठक के कूल्हे के प्रदेश को ठोकता हुआ, हाथों को हिलाता हआ और दोनों पैरों से भूमि को पीटता हआ हाय, हाय! ओह मैं मारा गया यों बडबडाता हआ, श्रमण भगवान महावीर के पास से, कोष्ठक-उद्यान से नीकला और हालाहला कुम्भकारी की दुकान थी, वहाँ आया । वहाँ आम्रफल हाथमें लिए हुए मद्यपान करता, बार-बार गाता और नाचता हुआ, बारबार हालाहला कुम्भारिन को अंजलिकर्म करता हुआ, मिट्टी के बर्तन में रखे हए मिट्टी मिले हए शीतल जल से अपने शरीर का परिसिंचन करता हआ विचरने लगा।
श्रमण भगवान महावीर ने कहा-हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरा वध करने के लिए अपने शरीर में से जितनी तेजोलेश्या नीकाली थी, वह सोलह जनपदों का घात करने, वध करने, उच्छेदन करने और भस्म करने में पूरी तरह पर्याप्त थी । वे सोलह जनपद ये हैं अंग, बंग, मगध, मलयदेश, मालवदेश, अच्छ, वत्सदेश, कौत्सदेश, पाट, लाढ़देश, वज्रदेश, मौली, काशी, कौशल, अवध और सुम्भुक्तर । हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक, जो हालाहला कुम्भारिन की दुकान में आम्रफल हाथ में लिए हुए मद्यपान करता हुआ यावत् बारबार अंजलिकर्म करता हुआ विचरता है, वह अपने उस पाप को प्रच्छादन करने के लिए इन आठ चरमों की प्ररूपणा करता है । यथा-चरम पान, चरमगान, चरम नाट्य, चरम अंजलिकर्म, चरम पुष्कल-संवर्तक महामेघ, चरम सेचनक गन्धहस्ती, चरम महाशिलाकण्टक संग्राम और मैं (मंखलिपुत्र गोशालक) इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों में से चरम तीर्थंकर होकर सिद्ध होऊंगा यावत् सब दुःखों का अन्त करूँगा।
हे आर्यो ! गोशालक मिट्टी के बर्तन में मिट्टी-मिश्रित शीतल पानी द्वारा अपने शरीर का सिंचन करता हुआ विचरता है; वह भी इस पाप को छिपाने के लिए चार प्रकार के पानक और चार प्रकार के अपानक की प्ररूपणा करता है । पानक क्या है ? पानक चार प्रकार का है-गाय की पीठ से गिरा हुआ, हाथ से मसला हुआ, सूर्य के ताप से तपा हुआ और शिला से गिरा हुआ । अपानक क्या है ? अपानक चार प्रकार का है । स्थाल का पानी, वृक्षादि की छाल का पानी, सिम्बली का पानी और शुद्ध पानी।
वह स्थाल-पानक क्या है ? जो पानी से भीगा हुआ स्थाल हो, पानी से भीगा हुआ वारक हो, पानी से भीगा हुआ बड़ा घड़ा हो अथवा पानी से भीगा हुआ कलश हो, या पानी से भीगा हुआ मिट्टी का बर्तन हो जिसे हाथों से स्पर्श किया जाए, किन्तु पानी पीया न जाए, यह स्थाल-पानक कहा गया है। त्वचा-पानक किस प्रकार का होता है? जो आम्र, अम्बाडग इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के सोलहवे प्रयोग पद में कहे अनुसार, यावत् बेर, तिन्दुरुक पर्यन्त हो, तथा जो तरुण एवं अपक्व हो, (उसकी छाल को) मुख में रखकर थोड़ा चूसे या विशेष रूप से चूसे, परन्तु उसका पानी न पीए यह त्वचा-पानक कहलाता है । वह सिम्बली-पानक किस प्रकार का होता है ? जो कलाय की फली, मूंग की फली, उड़द की फली अथवा सिम्बली की फली आदि, तरुण और अपक्व हो, उसे कोई मुँह से थोड़ा चबाता है या विशेष चबाता है, परन्तु उसका पानी नहीं पीता । वही सिम्बली-पानक होता है । वह शुद्ध पानी किस प्रकार का होता है ? व्यक्ति छह महीने तक शुद्ध खादिम आहार खाता है, छह महीनों में से दो महीने तक पृथ्वी-संस्तारक पर सोता है, दो महीने तक काष्ठ के संस्तारक पर सोता है, दो महीने तक दर्भ के संस्तारक पर सोता है; इस प्रकार छह महीने परिपूर्ण हो जाने पर अन्तिम रात्रि में उसके पास ये दो महर्द्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव प्रकट होते हैं, यथा-पूर्णभद्र और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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