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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक सूनता है, इत्यादि पूर्ववत्, वह भी उसकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे विषय में तो कहना ही क्या ? मैंने तझे प्रव्रजित किया, यावत मैंने तुझे बहश्रत बनाया, अब मेरे साथ ही तने इस प्रकार का मिथ्यात्व अ गोशालक ! ऐसा मत कर । ऐसा करना तुझे योग्य नहीं है । यावत्-तू वही है, अन्य नहीं है । तेरी वही प्रकृति है, अन्य नहीं । श्रमण भगवान महावीर द्वारा इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशालक पुनः एकदम क्रुद्ध हो उठा । उसने तैजस समुद्घात किया । फिर वह सात-आठ कदम पीछे हटा और श्रमण भगवान महावीर का वध करने के लिए उसने अपने शरीर में से तेजोलेश्या नीकाली । जिस प्रकार वातोत्कलिका वातमण्डलिका पर्वत, भींत, स्तम्भ या स्तूप से आवारित एवं निवारित होती हुई उन शैल आदि पर अपना थोड़ा-सा भी प्रभाव नहीं दिखाती । इसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर का वध करने के लिए गोशालक द्वारा अपन शरीर में से बाहर नीकाली हुई तपोजन्य तेजोलेश्या, भगवान महावीर पर अपना थोड़ा या बहुत कुछ भी प्रभाव न दिखा सकी। उसने गमनागमन (ही) किया । फिर उसने प्रदक्षिणा की और ऊपर आकाश में उछल गई । फिर वह वहाँ से नीचे गिरी और वापिस लौटकर उसी मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर को बार-बार जलाती हुई अन्त में उसी के शरीर के भीतर प्रविष्ट हो गई।
तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक अपनी तेजोलेश्या से स्वयमेव पराभूत हो गया । अतः (क्रुद्ध होकर) श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहने लगा- आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर से ग्रस्त शरीर वाले होकर दाह की पीड़ा से छह मास के अन्त में छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाओगे। इस पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा- हे गोशालक ! तेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर मैं छह मास के अन्तमें, यावत् काल नहीं करूँगा, किन्तु अगले १६वर्ष-पर्यन्त जिन अवस्थामें गन्ध-हस्ती के समान विचरूँगा । परन्तु हे गोशालक ! तू स्वयं अपनी तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर सात रात्रियोंके अन्तमें पित्तज्वर से शारीरिक पीड़ाग्रस्त होकर यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाएगा।
तदनन्तर श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग परस्पर एक दूसरे से कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे-देवानुप्रियो ! श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन परस्पर संलाप कर रहे हैं। एक कहता है- तू पहले काल कर जाएगा। दूसरा उसे कहता है- तू पहले मर जाएगा। इन दोनों में कौन सम्यग्वादी है, कौन मिथ्यावादी है ? उनमें से जो प्रधान मनुष्य था, उसने कहा- श्रमण भगवान महावीर सत्यवादी है, मंखलिपुत्र गोशालक मिथ्यावादी है। सूत्र - ६५२
श्रमण भगवान महावीर ने कहा- हे आर्यो ! जिस प्रकार तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, त्वचा राशि, तुषराशि, भूसे की राशि, गोमय की राशि और अवकर राशि को अग्नि से थोड़ा-सा जल जाने पर, आग में झोंक देने पर एवं अग्नि से परिणामान्तर होने पर उसका तेज हत हो जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज नष्ट और भ्रष्ट हो जाता है, उसका तेज लुप्त एवं विनष्ट हो जाता है; इसी प्रकार मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा मेरे वध के लिए अपने शरीर से तेजोलेश्या नीकाल देने पर, अब उसका तेज हत हो गया है, यावत् उसका तेज विनष्ट हो गया है । इसलिए, आर्यो ! अब तुम भले ही मंखलिपुत्र गोशालक को धर्मसम्बन्धी प्रतिमोदना से प्रतिप्रेरित करो, धर्म-सम्बन्धी प्रतिस्मारणा करा कर स्मृति कराओ। फिर धार्मिक प्रत्युपचार द्वारा उसका प्रत्युपचार करो, इसके बाद अर्थ, हेतु, प्रश्न व्याकरण और कारणों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछकर उसे निरुत्तर कर दो ।
जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा, तब उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया । फिर जहाँ मंखलिपुत्र गोशालक था, वहाँ आए और उसे धर्म-सम्बन्धी प्रतिप्रेरणा की, धर्मसम्बन्धी प्रतिस्मारणा की तथा धार्मिक प्रत्युपचार से उसे तिरस्कृत किया, एवं अर्थ, हेतु, प्रश्न व्याकरण और कारणों से उसे निरुत्तर कर दिया । इसके बाद गोशालक मंखलिपुत्र अत्यन्त कुपित हुआ यावत् मिसमिसाता हुआ क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित हो उठा । किन्तु अब वह श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को कुछ भी पीड़ा या उपद्रव पहुँचाने अथवा छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हआ।
जब आजीविक स्थविरों ने यह देखा कि श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा धर्म-सम्बन्धी प्रतिप्रेरणा से यावत् गोशालक को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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