________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-६४९
श्रमण भगवान महावीर ने कहा-गोशालक ! जैसे कोई चोर हो और वह ग्रामवासी लोगों के द्वारा पराभव पाता हुआ कहीं गड्ढा, गुफा, दुर्ग, निम्न स्थान, पहाड़ या विषम नहीं पा कर अपने आपको एक बड़े ऊन के रोम से, सण के रोम से, कपास के बने हुए रोम से, तिनकों के अग्रभाग से आवृत्त करके बैठ जाए, और नहीं ढंका हुआ भी स्वयं को ढंका हुआ माने, अप्रच्छन्न होते हुए भी प्रच्छन्न माने, लुप्त न होने पर भी अपने को लुप्त माने, पलायित न होते हुए भी अपने को पलायित माने, उसी प्रकार तू अन्य न होते हुए भी अपने आपको अन्य बता रहा है । अतः गोशालक! ऐसा मत कर । यह तेरे लिए उचित नहीं है । तू वही है । तेरी वही छाया है, तू अन्य नहीं है। सूत्र-६५०
श्रमण भगवान महावीर ने जब मंखलिपुत्र गोशालक को इस प्रकार कहा तब वह तुरन्त अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा क्रोध से तिलमिला कर वह श्रमण भगवान महावीर की अनेक प्रकार के ऊटपटांग आक्रोशवचनों से लगा, उद्घर्षणायुक्त वचनों से अपमान करने लगा, अनेक प्रकार की अनर्गल निर्भर्त्सना द्वारा भर्त्सना करने लगा, अनेक प्रकार के दुर्वचनों से उन्हें तिरस्कृत करने लगा। फिर गोशालक बोला-कदाचित तुम नष्ट हो गए हो, कदाचित आज तुम विनष्ट हो गए हो, कदाचित् आज तुम भ्रष्ट हो गए हो, कदाचित् तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो चूके हो । आज तुम जीवित नहीं रहोगे । मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है। सूत्र-६५१
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पूर्व देश में जन्मे हुए सर्वानुभूति नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे । वह अपने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश गोशालक के प्रलाप के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठे और मंखलिपुत्र गोशालक के पास आकर कहने लगे-हे गोशालक ! जो मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उन्हें वन्दना-नमस्कार करता है, यावत् उन्हें कल्याणरूप, मंगलरूप, देवस्वरूप, एवं ज्ञानरूप मानकर उनकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तुम्हारे लिए तो कहना ही क्या ? भगवान ने तुम्हें प्रव्रजित किया, मुण्डित किया, भगवान ने तुम्हें साधना सिखाई, भगवान ने तुम्हें शिक्षित किया, भगवान ने तुम्हें बहुश्रुत किया, तुम भगवान के प्रति मिथ्यापन अंगीकार कर रहे हो । हे गोशालक! तुम ऐसा मत करो तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं है । हे गोशालक ! तुम वही गोशालक हो, दूसरे नहीं, तुम्हारी वही प्रकृति है, दूसरी नहीं। सर्वानभति अनगार ने जब मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार की बातें कही तब वह एकदम क्रोध से आगबबूला हो उठा और अपने तपोजन्य तेज से उसने एक ही प्रहार में कूटाघात की तरह सर्वानुभूति अनगार को भस्म कर दिया। सर्वानुभूति अनगार को भस्म करके वह मंखलिपुत्र गोशालक फिर दूसरी बार श्रमण भगवान महावीर को अनेक प्रकार के ऊटपटांग आक्रोशवचनों से तिरस्कृत करने लगा।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर का कोशल जनपदीय में उत्पन्न अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था । वह भी प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था । उसने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार के समान गोशालक को यथार्थ बात कही, यावत्- हे गोशालक ! तू वही है, तेरी प्रकृति वही है, तू अन्य नहीं है। सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को भी परितापित कर (जला) दिया । मंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से जले हुए सुनक्षत्र अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप आकर और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके उन्हें वन्दना-नमस्कार किया । फिर स्वयमेव पंच महाव्रतों का आरोपण किया और सभी श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की। तदनन्तर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त कर अनुक्रम से कालधर्म प्राप्त किया । अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जलाने के बाद फिर तीसरी बार मंखलिपुत्र गोशालक, श्रमण भगवान महावीर को अनेक प्रकार के आक्रोशपूर्ण वचनों से तिरस्कृत करने लगा; इत्यादि पूर्ववत् ।
श्रमण भगवान महावीर ने, गोशालक से कहा-जो तथारूप श्रमण या माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 70