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________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2' शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक च्यवकर प्रथम संज्ञीगर्भ जीव में उत्पन्न होता है। फिर वह वहाँ से अन्तररहित मरकर मध्यम मानस द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करता है । वहाँ से देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर दूसरी बार फिर संज्ञीगर्भ में जन्म लेता है । वहाँ से तुरन्त मरकर अधस्तन मानस आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दिव्य भोग भोगकर यावत् वहाँ से च्यवकर तीसरे संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है। फिर वह वहाँ से मरकर उपरितन मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है। वहाँ वह दिव्यभोग भोगकर यावत् चतुर्थ संज्ञीगर्भ में जन्म लेता है । वहाँ से मरकर तुरन्त मध्यम मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है वहाँ वह दिव्यभोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यवकर पाँचवें संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है। वहाँ से मरकर तुरन्त अधस्तन मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ - देव में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करके यावत् च्यवकर छठे संज्ञीगर्भ जीव में जन्म लेता है। वह वहाँ से मरकर तुरन्त ब्रह्मलोक नामक कल्प में देवरूप में उत्पन्न होता है, वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा है, उत्तर-दक्षिण में चाड़ा है। यावत् उसमें पाँच अवतंसक विमान कहे गए हैं। यथा अशोकावतंसक, यावत् वे प्रतिरूप हैं । इन्हीं अवतंसकों में वह देवरूप में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दस सागरोपम तक दिव्य भोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यवकर सातवें संज्ञीगर्भ जीव में उत्पन्न होता है । वहाँ नौ मास और साढ़े सात रात्रि-दिवस यावत् व्यतीत होने पर सुकुमाल, भद्र, मृदु तथा कुण्डल के समान कुंचित केश वाला, कान के आभूषणों से जिसके कपोलस्थल चमक रहे थे, ऐसे देवकुमारसम कान्ति वाले बालक को जन्म दिया हे काश्यप वही मैं हूँ। कुमारावस्था में ली हुई प्रव्रज्या से, कुमारावस्था में ब्रह्मचर्यवास से जब में अविद्धकर्म था, तभी मुझे प्रव्रज्या ग्रहण करने की बुद्धि प्राप्त हुई। फिर मैंने सात परिवृत्त परिहार में संचार किया, यथा- ऐणेयक, मल्लरामक, मण्डिक, रौह, भारद्वाज, गौतमपुत्र अर्जुनक और मंखलिपुत्र गोशालक के (शरीर में प्रवेश किया)। T इनमें से जो प्रथम परिवृत्त परिहार हुआ, वह राजगृह नगर के बाहर मंडिककुक्षि नामक उद्यान में, कुण्डि यायण गोत्रीय उदायी के शरीर का त्याग करके ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया । वहाँ मैंने बाईस वर्ष तक प्रथम परिवृत्त परिहार किया। इनमें से जो द्वीतिय परिवृत्त परिहार हुआ, वह उद्दण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरण नामक उद्यान में मैंने ऐणेयक के शरीर का त्याग किया और मल्लरामक के शरीर में प्रवेश किया । वहाँ मैंने इक्कीस वर्ष तक दूसरे परिवृत्त परिहार का उपभोग किया । इनमें से जो तृतीय परिवृत्त - परिहार हुआ, वह चम्पानगरी के बाहर अंगमंदिर नामक उद्यान में मल्लरामक के शरीर का परित्याग किया। फिर मैंने मण्डिक के शरीर में प्रवेश किया । वहाँ मैं बीस वर्ष तक तृतीय परिवृत्त परिहार का उपभोग किया। इनमें से जो चतुर्थ परिवृत्त परिहार हुआ, वह वाराणसी नगरी के बाहर काम महावन नामक उद्यान के मण्डिक के शरीर का मैंने त्याग किया और रोहक के शरीर में प्रवेश किया। वहाँ मैंने उन्नीस वर्ष तक चतुर्थ परिवृत्त परिहार का उपभोग किया। उनमें से जो पंचम परिवृत्त परिहार हुआ, वह आलभिका नगरी के बाहर प्राप्तकालक नाम के उद्यान में हुआ । उसमें मैं रोहक के शरीर का परित्याग करके भारद्वाज के शरीर में प्रविष्ट हुआ। वहाँ अठारह वर्ष तक पाँचवे परिवृत्त परिहार का उपभोग किया। उनमें से जो छठा परिवृत्त-परिहार हुआ, उसमें मैंने वैशाली नगर के बाहर कुण्डियायन नामक उद्यान में भारद्वाज के शरीर का परित्याग किया और गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर में प्रवेश किया। वहाँ मैंने सत्रह वर्ष तक छठे परिवृत्त परिहार का उपभोग किया। उनमें से जो सातवाँ परिवृत्त परिहार हुआ, उसमें मैंने इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भकारी की बर्तनों की दुकान में गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर का परित्याग किया। फिर मैंने समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य, शीतसहिष्णु, उष्णसहिष्णु, क्षुधासहिष्णु, विविध दंशमशकादिपरीषह उपसर्ग-सहनशील एवं स्थिर संहनन वाला जानकर, मंखलिपुत्र गोशालक के उस शरीर में प्रवेश किया । उसमें प्रवेश करके मैं सोलह वर्ष तक इस सातवे परिवृत्त-परिहार का उपभोग करता हूँ । I 1 इसी प्रकार हे आयुष्मन् काश्यप ! इन १३३ वर्षों में मेरे ये सात परिवृत्त परिहार हुए हैं, ऐसा मैंने कहा था । इसलिए आयुष्मन् काश्यप ! तुम ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 69
SR No.034672
Book TitleAgam 05 Bhagwati Sutra Part 02 Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 05, & agam_bhagwati
File Size6 MB
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