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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-६४७
(भगवन् -) इसलिए हे आनन्द ! तू जा और गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को यह बात कही कि-हे आर्यो! मंखलिपुत्र गोशालक के साथ कोई भी धार्मिक चर्चा न करे, धर्मसम्बन्धी प्रतिसारणा न करावे तथा धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार पूर्वक कोई प्रत्युपचार (तिरस्कार) न करे । क्योंकि (अब) मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति
ष रूप से मिथ्यात्व भाव धारण कर लिया है। वह आनन्द स्थविर श्रमण भगवान महावीर से यह सन्देश सूनकर वन्दना-नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थ थे, वहाँ आए । फिर गौतमादि श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाकर उन्हें कहा-हे आर्यो ! आज मैं छठक्षमण के पारणे के लिए श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा प्राप्त करके श्रावस्ती नगरी में उच्च-नीच-मध्यम कुलों में इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत् यावत्-ज्ञातपुत्र को यह बात कहना यावत् हे आर्यो ! तुम में से कोई भी गोशालक के साथ उसके धर्म, मत सम्बन्धी प्रतिकूल प्रेरणा मत करना, यावत मिथ्यात्व को विशेष रूप से अंगीकार कर लिया है। सूत्र-६४८
जब आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को भगवान का आदेश कह रहे थे, तभी मंखलिपुत्र गोशालक आजीवकसंघ से परिवृत्त होकर हालाहला कुम्भकारी की दुकान से नीकलकर अत्यन्त रोष धारण किए शीघ्र एवं त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आया । फिर श्रमण भगवान महावीर स्वामी से न अति दूर और न अति निकट खड़ा रहकर उन्हें इस प्रकार कहने लगा-आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरे विषय में अच्छा कहते हो! हे आयुष्मन् ! तुम मेरे प्रति ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, गोशालक मंखलिपुत्र मेरा धर्म-शिष्य है । जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह तो शुक्ल और शुक्लाभिजात होकर काल के समय काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हो चूका है । मैं तो कौण्डिन्यायन-गोत्रीय उदायी हूँ | मैंने गौतम पुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया । मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश करके मैंने यह सातवां परिवृत्त-परिहार किया है।
हे आयुष्मन् काश्यप! हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो भी सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं, अथवा सिद्ध होंगे, वे सब (पहले) चौरासी लाख महाकल्प, सात दिव्य, सात संयूथनिकाय, सात संज्ञीगर्भ सात परिवृत्त-परिहार और पाँच लाख, साठ हजार छह-सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करके तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । भूतकाल में ऐसा किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में ऐसा करेंगे। जिस प्रकारी गंगा महानदी जहाँ से नीकलती है, और जहाँ समाप्त होती है; उसका वह मार्ग लम्बाई में ५०० योजन है और चौड़ाई में आधा योजन है तथा गहराई में पाँच-सौ धनुष हैं । उस गंगा के प्रमाण वाली सात गंगाएं मिलकर एक महागंगा होती है । सात महागंगाएं मिलकर एक सादीनगंगा होती है । सात सादीन-गंगाएं मिलकर एक मृतगंगा होती है । सात मृतगंगाएं मिलकर एक लोहितगंगा होती है । सात लोहितगंगाएं मिल कर एक अवन्तीगंगा होती है । सात अवन्तीगंगाएं मिलकर परमावतीगंगा होती है । इस प्रकार पूर्वापर मिलकर कुल एक लाख, सत्रह हजार, छह सौ उनचास गंगा नदियाँ हैं।
उन (गंगानदियों के बालुकाकण) का दो प्रकार का उद्धार कहा गया है । यथा-सूक्ष्मबोन्दिकलेवररूप और बादर-बोन्दि-कलेवररूप । उनमें से जो सूक्ष्मबोंदि-कलेवररूप उद्धार है, वह स्थाप्य है। उनमें से जो बादर-बोंदिकलेवररूप उद्धार हैं, उनमें से सौ-सौ वर्षों में गंगा की बालू का एक-एक कण नीकाला जाए और जितने काल में वह गंगा-समूहरूप कोठा समाप्त हो जाए, रजरहित निर्लेप और निष्ठित हो जाए, तब एक शरप्रमाण काल कहलाता है। इस प्रकार के तीन लाख शरप्रमाण काल द्वारा एक महाकल्प होता है । चौरासी लाख महाकल्पों का एक महामानस होता है । अनन्त संयूथ से जीव च्यवकर संयूथ-देवभव में उपरितन मानस द्वारा उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्यभोगों का उपभोग करता रहता है। उस देवलोक का आयुष्य-क्षय, देवभव का क्षय और देवस्थिति का क्षय होने पर तुरन्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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