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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक काला, दृष्टि के विष से रोषपूर्ण, अंजन-पुंज के समान कान्ति वाला, लाल-लाल आँखों वाला, चपल एवं चलती हुई दो जिह्वा वाला, पृथ्वीतल की वेणी के समान, उत्कट स्पष्ट कुटिल जटिल कर्कश विकट फटाटोप करने में दक्ष, लोहार की धौंकनी के समान धमधमायमान शब्द करने वाला, अप्रत्याशित प्रचण्ड एवं तीव्र रोष वाला, कुक्कुर के मुख से भसने के समान, त्वरित चपल एवं धम-धम शब्द वाला था । उस दृष्टिविष सर्प का उन वणिकों से स्पर्श होते ही वह अत्यन्त कुपित हुआ । यावत् मिसमिसाट शब्द करता हुआ शनैः शनैः उठा और सरसराहट करता हुआ वल्मीक के शिखर-तल पर चढ़ गया। फिर उसने सूर्य की ओर टकटकी लगा कर देखा । उसने उस वणिक्वर्ग की ओर अनिमेष दृष्टि से चारों ओर देखा । उस दृष्टिविष सर्प द्वारा वे वणिक् सब ओर अनिमेष दृष्टि से देखने पर किराने के समान आदि माल एवं बर्तनों व उपकरणों सहित एक ही प्रहार से कूटाघात के समान तत्काल जलाकर राख का ढेर कर दिए गए । उन वणिकों में से जो वणिक् उन वणिकों का हितकामी यावत् हित-सुख-निःश्रेयसकामी था उस पर नागदेवता ने अनुकम्पायुक्त होकर भण्डोपकरण सहित उसे अपने नगर में पहुँचा दिया।
इसी प्रकार, हे आनन्द ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र ने उदार पर्याय प्राप्त की है। देवों, मनुष्यों और असुरों सहित इस लोक में श्रमण भगवान महावीर, श्रमण भगवान महावीर इस रूप में उनकी उदार कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक फैल रहे हैं, गुंजायमान हो रहे हैं, स्तुति के विषय बन रहे हैं । इससे अधिक की लालसा करके यदि वे आज से मुझे कुछ भी कहेंगे, तो जिस प्रकार उस सर्पराज ने एक ही प्रहार से उन वणिकों को कूटाघात के समान जलाकर भस्मराशि कर डाला, उसी प्रकार मैं भी अपने तप और तेज से एक ही प्रहार में उन्हें भस्मराशि कर डालूँगा । जिस प्रकार उन वणिकों के हितकामी यावत् निःश्रेयसकामी वणिक पर उस नागदेवता ने अनुकम्पा की
और उसे भण्डोपकरण सहित अपने नगर में पहुंचा दिया था, उसी प्रकार हे आनन्द ! मैं भी तुम्हारा संरक्षण और संगोपन करूँगा । इसलिए, हे आनन्द ! तुम जाओ और अपने धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र को यह बात कह दो। उस समय मंखलिपुत्र गोशालक के द्वारा आनन्द स्थविर को इस प्रकार कहे जाने पर आनन्द स्थविर भयभीत हो गए, यावत् उनके मन में डर बैठ गया । वह मंखलिपुत्र गोशालक के पास से हालाहला कुम्भकारी की दुकान से नीकले
और शीघ्र एवं त्वरितगति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर जहाँ कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए । तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार करके यों बोले-भगवन् ! मैं
ग के पारणे के लिए आपकी आज्ञा प्राप्त कर श्रावस्ती नगरी में यावत् जा रहा था, तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे देखा और बुलाकर कहा- हे आनन्द ! यहाँ आओ और मेरे एक दृष्टान्त को सून लो। हे आनन्द ! आज से बहुत काल पहले कईं उन्नत और अवनत वणिक् इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत्, यावत्-अपने नगर पहुंचा दिया अतः हे आनन्द ! तुम जाओ और अपने धर्मोपदेशक को यावत कह देना। सूत्र-६४६
___ (आनन्द स्थविर-) [प्र.] भगवन् ! क्या मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात के समान जलाकर भस्मराशि करने में समर्थ हैं? भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह यावत् विषयमात्र है अथवा वह ऐसा करने में समर्थ भी हैं?' हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज से यावत् भस्म करने में समर्थ हैं । हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह विषय है । हे आनन्द ! गोशालक ऐसा करने में भी समर्थ है; परन्तु अरिहंत भगवंतों को नहीं है । तथापि वह उन्हें परिताप उत्पन्न करने में समर्थ हैं । हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का जितना तप-तेज है, उससे अनन्त-गुण विशिष्टतर तप-तेज अनगार भगवंतों का है, अनगार भगवंत क्षान्तिक्षम होते हैं । हे आनन्द ! अनगार से अनन्तगुण विशिष्टतर तप-तेज स्थविर भगवंतों का है, क्योंकि स्थविर भगवंत क्षान्तिक्षम होते हैं
और हे आनन्द ! स्थविर भगवंतों से अनन्त-गुण विशिष्टतर तप-तेज अर्हन्त भगवंतों का होता है, क्योंकि अर्हन्त भगवंत क्षान्तिक्षम होते हैं । अतः हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज द्वारा यावत् भस्म करने में प्रभु है। हे आनन्द ! यह उसका विषय है और हे आनन्द ! वह वैसा करने में समर्थ भी है; परन्तु अर्हन्त भगवंतों को भस्म करने में समर्थ नहीं, केवल परिताप उत्पन्न कर सकता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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