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________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2' शतक/ वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक में प्रविष्ट हुए। ग्रामरहित, जल-प्रवाहरहित, सार्थों के आवागमन से रहित उस दीर्घमार्ग वाली अटवी के कुछ भाग में, उन वणिकों के पहुंचने के बाद, अपने साथ पहले का लिया हुआ पानी क्रमशः पीते-पीते समाप्त हो गया। _ 'जल समाप्त हो जाने से तृषा से पीड़ित वे वणिक् एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहने लगे- देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् महाअटवी के कुछ भाग से पहुंचते ही हमारे साथ में पहले से लिया पानी क्रमशः पीते-पीते समाप्त हो गया है, इसलिए अब हमें इसी अग्राम्य यावत् अटवी में चारों ओर पानी की शोध-खोज करना श्रेयस्कर है । इस प्रकार विचार करके उन वणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उस ग्रामरहित यावत् अटवी में वे सब चारों ओर पानी की शोध-खोज करने लगे । तब वे एक महान् वनखण्ड में पहुँचे, जो श्याम, श्याम-आभा से युक्त यावत् प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् सुन्दर था । उस वनखण्ड के ठीक मध्यभाग में उन्होंने एक बड़ा वल्मीक देखा । उस वल्मीक के सिंह के स्कन्ध के केसराल के समान ऊंचे उठे हुए चार शिखराकार-शरीर थे । वे शिखर तिरछे फैले हुए थे। नीचे अर्द्धसर्प के समान थे । अर्द्ध सर्पाकार वल्मीक आह्लादोत्पादक यावत् सुन्दर थे। उस वाल्मीक को देखकर वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट होकर और परस्पर एक दूसरे को बुलाकर यों कहने लगे- हे देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् अटवी में सब ओर पानी की शोध-खोज करते हुए हमें यह महान् वन-खण्ड मिला है, जो श्याम एवं श्याम-आभा के समान है, इत्यादि । इस वल्मीक के चार ऊंचे उठे हुए यावत् सुन्दर शिखर है । इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है; जिससे हमें यहाँ बहुत-सा उत्तम उदक मिलेगा। फिर उस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ते हैं, जिसमें से उन्हें स्वच्छ, पथ्य-कारक, उत्तम, हल्का और स्फटिक के वर्ण जैसा श्वेत बहुत-सा श्रेष्ठ जल प्राप्त हुआ। इसके बाद वे वणिक हर्षित और सन्तुष्ट हुए । उन्होंने वह पानी पिया, अपने बैलों आदि वाहनों को पिलाया और पानी के बर्तन भर लिए। तत्पश्चात् उन्होंने दूसरी बार भी परस्पर इस प्रकार वार्तालाप किया-हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से बहुत-सा उत्तम जल प्राप्त हुआ है। अतः देवानुप्रियो ! अब हमें इस वल्मीक के द्वीतिय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें पर्याप्त उत्तम स्वर्ण प्राप्त हो । उन्होंने उस वल्मीक के द्वीतिय शिखर को भी तोड़ा । उसमें से उन्हें स्वच्छ उत्तम जाति का, ताप को सहन करने योग्य महाघ-महार्ह पर्याप्त स्वर्णरत्न मिला। स्वर्ण प्राप्त होने से वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट हुए । फिर उन्होंने अपने बर्तन भर लिए और वाहनों को भी भर लिया फिर तीसरी बार भी उन्होंने परस्पर इस प्रकार परामर्श किया-देवानुप्रियो ! हमने इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त किया, फिर दूसरे शिखर को तोड़ने से विपुल उत्तम स्वर्ण प्राप्त किया । अतः हे देवानुप्रियो ! हमें अब इस वल्मीक के तृतीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे कि हमें वहाँ उदार मणिरत्न प्राप्त हों। उन्होंने उस वल्मीक के तृतीय शिखर को भी तोड डाला । उसमें से उन्हें विमल, निर्मल, अत्यन्त गोल, निष्कल महान् अर्थ वाले, महामूल्यवान्, महार्ह, उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। इन्हें देखकर वे वणिक् अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हए। उन्होंने मणियों से अपने बर्तन भर लिए, फिर उन्होंने अपने वाहन भी भर लिए। तत्पश्चात् वे वणिक् चौथी बार भी परस्पर विचार-विमर्श करने लगे-हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त हुआ, यावत् तीसरे शिखर को तोड़ने से हमें उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। अतः अब हमें इस वल्मीक के चौथे शिखर को भी तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हे देवानुप्रियो ! हमें उसमें से उत्तम, महामूल्यवान, महार्ह एवं उदार वज्ररत्न प्राप्त होंगे। यह सूनकर उन वणिकों में एक वणिक् जो उन सबका हितैषी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पक और निःश्रेयसकारी तथा हित-सुख-निःश्रेयसकामी था, उसने अपने उन साथी वणिकों से कहा-देवानुप्रियो ! अतः अब बस कीजिए । अपने लिए इतना ही पर्याप्त है । अब यह चौथा शिखर मत तोड़ो । कदाचित् चौथा शिखर तोड़ना हमारे लिए उपद्रवकारी हो सकता है । उस समय हितैषी, सुखकामी यावत् हित-सुख-निःश्रेयस्कामी उस वणिक् ने इस कथन यावत् प्ररूपण पर उन वणिकों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की । उन्होंने उस वल्मीक के चतुर्थ शिखर को भी तोड़ डाला । शिखर टूटते ही वहाँ उन्हें एक दृष्टिविष सर्प का स्पर्श हुआ, जो उग्रविष वाला, प्रचण्ड विषधर, घोरविषयुक्त, महाविष से युक्त, अतिकाय, महाकाय, मसि और मूषा के समान मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 66
SR No.034672
Book TitleAgam 05 Bhagwati Sutra Part 02 Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 05, & agam_bhagwati
File Size6 MB
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