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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक पर मसलकर सात तिल बाहर नीकाले । उस मंखलिपुत्र गोशालक को उन सात तिलों को गिनते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-सभी जीव इस प्रकार परिवृत्त्य-परिहार करते हैं । हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह परिवर्त्त हैं और हे गौतम ! मुझसे मंखलिपुत्र गोशालक का यह अपना पृथक् विचरण है। सूत्र-६४३
तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक नखसहित एक मुट्ठी में आवें, इतने उड़द के बाकलों से तथा एक चुल्लूभर पानी से निरन्तर छठ-छठ के तपश्चरण के साथ दोनों बाहें ऊंची करके सूर्य के सम्मुख खड़ा रहकर आतापना-भूमि में यावत् आतापना लेने लगा । ऐसा करते हुए गोशालक को छह मास के अन्त में, संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्या प्राप्त हो गई। सूत्र-६४४
इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक के पास किसी दिन ये छह दिशाचर प्रकट हुए । यथा-शोण इत्यादि सब कथन पूर्ववत्, यावत्-जिन न होते हुए भी अपने आपको जिन शब्द से प्रकट करता हुआ विचरण करने लगा है। अतः हे गौतम ! वास्तव में मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है, वह जिन शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रसिद्ध करता हुआ विचरता है । वस्तुतः मंखलिपुत्र गोशालक अजिन है; जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है । तदनन्तर वह अत्यन्त बड़ी परीषद् शिवराजर्षि के समान धर्मोपदेश सूनकर यावत् वन्दना-नमस्कार कर वापस लौट गई।
तदनन्तर श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से यावत् प्ररूपणा करने लगे-हे देवानुप्रियो ! जो यह गोशालक मंखलिपुत्र अपने-आपको जिन होकर, जिन कहता यावत् फिरता है; यह बात मिथ्या है । श्रमण भगवान महावीर कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि उस मंखलिपुत्र गोशालक को मंखली नामक मंख पिता था । उस समय उस मंखली का..इत्यादि पूर्वोक्त समस्त वर्णन; यावत्-वह जिन नहीं होते हुए भी जिन शब्द से अपने आपको प्रकट करता है । यावत् विचरता है । श्रमण भगवान महावीर जिन हैं, जिन कहते हुए यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं । जब गोशालक ने बहुत-से लोगों से यह बात सूनी, तब उसे सूनकर और अवधारण करके वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, यावत्, मिसमिसाहट करता हुआ आतापना-भूमि से नीचे ऊतरा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान पर आया। वह हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान पर आजीविकसंघ से परिवृत्त होकर अत्यन्त अमर्ष धारण करता हुआ इसी प्रकार विचरने लगा। सूत्र-६४५
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर का अन्तेवासी आनन्द नामक स्थविर था । वह प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था और निरन्तर छठ-छठ का तपश्चरण करता हुआ और संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था । उस दिन आनन्द स्थविर ने अपने छठक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय किया, यावत्-गौतमस्वामी के समान भगवान से आज्ञा मांगी और उसी प्रकार ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करता हुआ हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान के पास से गुजरा । जब मंखलिपुत्र गोशालक ने आनन्द स्थविर को हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान के निकट से जाते हुए देखा, तो बोला-'अरे आनन्द ! यहाँ आओ, एक महान दृष्टान्त सून लो। गोशालक के द्वार इस प्रकार कहने पर आनन्द स्थविर, हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान में (बैठे) गोशालक के पास आया।
तदनन्तर मंखलिपुत्र गोशालक ने आनन्द स्थविर से इस प्रकार कहा-हे आनन्द ! आज से बहुत वर्षों पहले की बात है । कईं उच्च एवं नीची स्थिति के धनार्थी, धनलोलुप, धन के गवेषक, अर्थाकांक्षी, अर्थपीपासु वणिक्, धन की खोज में नाना प्रकार के किराने की सुन्दर वस्तुएं, अनेक गाड़े-गाड़ियों में भरकर और पर्याप्त भोजन-पान रूप पाथेय लेकर ग्रामरहित, जल-प्रवाह से रहित सार्थ आदि के आगमन से विहीन तथा लम्बे पथ वाली एक महा-अटवी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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