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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक रहा । इस पर मंखलिपुत्र गोशालक ने दूसरी और तीसरी बार वैश्यायन बालतपस्वी को फिर इसी प्रकार वही प्रश्न पूछा-तब वह शीघ्र कुपित हो उठा यावत् क्रोध से दाँत पीसता हुआ आतापनाभूमि से नीचे उतरा । फिर तैजस-समुद् घात करके वह सात-आठ कदम पीछे हटा । इस प्रकार मंखलिपुत्र गोशालक को भस्म करने के लिए उसने अपने शरीर से तेजोलेश्या बाहर नीकाली । तदनन्तर, हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक पर अनुकम्पा करने के लिए, वैश्यायन बालतपस्वी की तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए शीतल तेजोलेश्या बाहर नीकाली । जिससे मेरी तेजोलेश्या से वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हो गया । मेरी शीतल तेजोलेश्या से अपनी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ तथा गोशालक के शरीर को थोड़ी या अधिक पीड़ा या अवयवक्षति नहीं हुई जानकर वैश्यायन बालतपस्वी ने अपनी उष्ण तेजोलेश्या वापस खींच ली और उष्ण तेजोलेश्या को समेट कर उसने मुझसे कहा- भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन् ! मैं समझ गया ।
मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझसे यों पूछा- भगवन् ! इस जूओं के शय्यातर ने आपको क्या कहा- भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन ! मैं समझ गया ?' इस पर हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक से मैंने यों कहा- हे गोशालक! ज्यों ही तुमने वैश्यायन बालतपस्वी को देखा, त्यों ही तुम मेरे पास से शनैः शनैः खिसक गए और जहाँ वैश्यायन बालतपस्वी था, वहाँ पहुँच गए । यावत् तब वह एकदम कुपित हुआ, यावत् वह पीछे हटा और तुम्हारा वध करने के लिए उसने अपने शरीर से तेजोलेश्या नीकाली । हे गोशालक ! तब मैंने तुझ पर अनुकम्पा करने के लिए वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए अपने अन्तर से शीतल तेजोलेश्या नीकाली; यावत् उसने अपनी उष्ण तेजोलेश्या वापस खींच ली । फिर मुझे कहा- भगवन् ! मैं जान गया, भगवन् ! मैंन भलीभाँति समझ लिया । मंखलिपुत्र गोशालक मेरे से यह बात सुनकर और अवधारण करके डरा; यावत् भयभीत होकर मुझे वन्दन-नमस्कार करके बोला- भगवन् ! संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त होती है ?' हे गौतम ! तब मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा- गोशालक ! नखसहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें तथा एक विकटाशय जल से निरन्तर छठ-छठ तपश्चरण के साथ दोनों भुजाएं ऊंची रख कर यावत् आतापना लेता रहता है, उस व्यक्ति को छह महीने के अन्त में संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है। यह सूनकर मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन को विनयपूर्वक सम्यक् रूप से स्वीकार किया। सूत्र - ६४२
हे गौतम ! इसके पश्चात् किसी एक दिन मंखलिपुत्र गोशालक के साथ मैंने कूर्मग्रामनगर से सिद्धार्थग्रामर का आर विहार के लिए प्रस्थान किया । जब हम उस स्थान के निकट आए, जहाँ वह तिल का पौधा था, तब
मंखलिपुत्र ने मुझसे कहा- भगवन ! आपने मुझे उस समय कहा था, यावत प्ररूपणा की थी की हे गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा, यावत् तिलपुष्प के सप्त जीव मरकर सात तिल के रूप में पुनः उत्पन्न होंगे, किन्तु आपकी वह बात मिथ्या हुई, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिख रहा है कि यह तिल का पौधा उगा ही नहीं हे गौतम ! तब मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा-हे गोशालक ! जब मैंने तुझ से ऐसा कहा था, यावत् ऐसी प्ररूपणा की थी, तब तूने मेरी उस बात पर न तो श्रद्धा की, न प्रतीति की, न ही उस पर रुचि की, बल्कि उक्त कथन पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि न करके तू मुझे लक्ष्य करके कि यह मिथ्यावादी हो जाएं ऐसा विचार कर यावत् उस तिल के पौधे को तूने मिट्टी सहित उखाड़ कर एकान्त में फेंक दिया। लेकिन हे गोशालक ! उसी समय आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए यावत् गरजने लगे, इत्यादि यावत् वे तिलपुष्प तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए हैं । अतः हे गोशालक ! यही वह तिल का पौधा है, जो निष्पन्न हुआ है, अनिष्पन्न नहीं रहा है और वे ही सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए हैं। हे गोशालक वनस्पतिकायिक जीव मर-मर कर उसी वनस्पतिकायिक के शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैं । तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन यावत् प्ररूपण पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की । बल्कि उस कथन के प्रति अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करता हुआ वह उस तिल के पौधे के पास पहुंचा और उसकी तिलफली तोड़ी, फिर उसे हथेली
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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