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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक उस समय बहुत-से लोगों से इस बात को सूनकर एवं अवधारण करके उस मंखलिपुत्र गोशालक के हृदय में इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ-मेरे धर्माचार्य एवं धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य तथा पुरुषकार-पराक्रम आदि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुए हैं, वैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम आदि अन्य किसी भी तथारूप श्रमण या माहन को उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत नहीं है । इसलिए निःसन्देह मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर स्वामी अवश्य यहीं होंगे, ऐसा विचार करके वह कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर और भीतर सब ओर मेरी शोध-खोज करने लगा सर्वत्र मेरी खोज करते हुए कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर के भाग की मनोज्ञ भूमि में मेरे साथ उसकी भेंट हुई । उस समय मंखलिपत्र गोशालक ने प्रसन्न और सन्तष्ट होकर तीन बार दाहिनी ओर से मेरी प्रदक्षिणा की. यावत वन्दननमस्कार करके इस प्रकार कहा-भगवन ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका अन्तेवासी हँ । तब हे गौतम ! मैंने मंखलिपत्र गोशालक की इस बात को स्वीकार किया। तत्पश्चात हे गौतम ! मैं मंखलिपत्र गोशालक के साथ उस प्रणीत भूमि में छह वर्ष तक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करता हआ अनित्यताजागरिका करता हुआ विहार करता रहा। सूत्र-६४०
तदनन्तर, हे गौतम ! किसी दिन प्रथम शरत-काल के समय, जब वृष्टि का अभाव था; मंखलिपुत्र गोशालक के साथ सिद्धार्थग्राम नामक नगर से कूर्मग्राम नामक नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थान कर चूका था। उस समय सिद्धार्थग्राम और कूर्मग्राम के बीच में तिल का एक बड़ा पौधा था । जो पत्र-पुष्प युक्त था, हराभरा होने की श्री से अतीव शोभायमान हो रहा था । गोशालक ने उस तिल के पौधे को देखा । फिर मेरे पास आकर वन्दन-नमस्कार करके पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं? इन सात तिलपुष्पों के जीव मरकर कहाँ जाएंगे, कहाँ उत्पन्न होंगे? इस पर हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा-गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा । नहीं निष्पन्न होगा, ऐसी बात नहीं है और ये सात तिल के फूल मरकर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न होंगे।
इस पर मेरे द्वारा कही गई इस बात पर मंखलिपुत्र गोशालक ने न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न ही रुचि की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं करता हुआ, मेरे निमित्त से यह मिथ्यावादी हो जाएं, ऐसा सोचकर गोशालक मेरे पास से धीरे धीरे पीछे खिसका और उस तिल के पौधे के पास जाकर उस तिल के पौधे को मिट्टी सहित समूल उखाड़ कर एक ओर फैंक दिया । पौधा उखाड़ने के बाद तत्काल आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए। वे बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गरजने लगे । तत्काल बीजली चमकने लगी और अधिक पानी और अधिक मिट्टी का कीचड़ न हो, इस प्रकार से कहीं-कहीं पानी की बूंदाबांदी होकर रज और धूल को शान्त करने वाली दिव्य जलवृष्टि हुई, जिससे तिल का पौधा वहीं जम गया । वह पुनः उगा और बद्धमूल होकर वहीं प्रतिष्ठित हो गया और वे सात तिल के फूलों के जीव मरकर पुनः उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए। सूत्र - ६४१
तदनन्तर, हे गौतम ! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया । उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक बालतपस्वी निरन्तर छठ-छठ तपःकर्म करने के साथ-साथ दोनों भुजाएं ऊंची रखकर सूर्य के सम्मुख खड़ा होकर आतापनभूमि में आतापना ले रहा था । सूर्य की गरमी से तपी हुई जूएं चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थीं और वह तपस्वी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की दया के लिए बार-बार पड़ती हुई उन जूओं को उठा कर बार-बार वहीं की वहीं रखता जाता था।
तभी मंखलिपुत्र गोशालक ने वैश्यायन बालतपस्वी को देखा, मेरे पास से धीरे-धीरे खिसक कर वैश्यायन बालतपस्वी के निकट आया और उससे कहा- क्या आप तत्त्वज्ञ या तपस्वी मुनि हैं या जूओं के शय्यातर हैं ?' वैश्यायन बालतपस्वी ने गोशालक के इस कथन को आदर नहीं दिया और न ही इसे स्वीकार किया, किन्तु वह मौन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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