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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक शुद्धि से और पात्रशुद्धि के कारण तथा तीन करण और कृत कारित और अनुमोदित की शुद्धि-पूर्वक मुझे प्रतिलाभित करने से उसने देव का आयुष्य-बन्ध किया, संसार परिमित किया । उसके घर में ये पाँच दिव्य प्रादुर्भूत हुए, यथा-वसुधारा की वृष्टि, पाँच वर्णों के फूलों की वृष्टि, ध्वजारूप वस्त्र की वृष्टि, देवदुन्दुभि का वादन और आकाश अहो दानम्, अहो दानम् की घोषणा ।
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उस समय राजगृह नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क मार्गों यावत् राजमार्गों में बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे कि हे देवानुप्रियो विजय गाथापति धन्य है, देवानुप्रियो विजय गाथापति कृतार्थ है. कृतपुण्य है, कृतलक्षण है. उभयलोक सार्थक है और विजय गाथापति का मनुष्य जन्म और जीवन रूप फल सुलब्ध है कि जिसके घर में तथारूप सौम्यरूप साधु को प्रतिलाभित करने से ये पाँच दिव्य प्रकट हुए हैं । अतः विजय गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है । उसके दोनों लोक सार्थक हैं । विजय गाथापति का मानव जन्म एवं जीवन सफल है-प्रशसनीय है । उस अवसर पर मंखलिपुत्र गोशालक ने भी बहुत-से लोगों से यह बात सूनी और समझी। इससे उसके मन में पहले संशय और फिर कुतूहल उत्पन्न हुआ। वह विजय गाथापति के घर आया। बरसी हुई वसुंधरा तथा पाँच वर्ण के निष्पन्न कुसुम भी देखे। उसने मुझे भी विजय गाथापति के घर से बाहर नीकलते हुए देखा। वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। फिर मेरे पास आकर उसने तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया। मुझसे बोला- भगवन्। आप मेरे धर्माचार्य हैं और में आपका धर्मशिष्य हूँ हे गौतम! इस प्रकार मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात का आदर नहीं किया । स्वीकार नहीं किया । मैं मौन रहा । हे गौतम! मैं राजगृह नगर से नीकला और नालन्दा पाड़ा से बाहर मध्य में होता हुआ उस तन्तुवायशाला में आया । वहाँ में द्वीतिय मासक्षमण स्वीकार करके रहने लगा। फिर, हे गौतम मैं दूसरे मासक्षमण के पारणे नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में से होता हुआ राजगृह नगर में यावत् भिक्षाटन करता हुआ आनन्द गाथापति के घर में प्रविष्ट हुआ । आनन्द गाथापति ने मुझे आते हुए देखा, इत्यादि सारा वृत्तान्त विजय गाथापति के समान | विशेष यह है कि- मैं विपुल खण्ड - खाद्यादि भोजन-सामग्री से प्रतिलाभूंगा : यों विचार कर सन्तुष्ट हुआ । यावत्- मैं तृतीय मासक्षमण स्वीकार करके रहा।
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हे गौतम! तीसरे मासक्षमण के पारणे के लिए मैंने यावत् सुनन्द गाथापति के घर में प्रवेश किया। तब सुनन्द गाथापति ने ज्यों ही मुझे आते हुए देखा, इत्यादि सारा वर्णन विजय गाथापति के समान । विशेषता यह है कि उसने मुझे सर्वकामगुणित भोजन से प्रतिलाभित किया । यावत् मैं चतुर्थ मासक्षमण स्वीकार करके विचरण करने लगा । उस नालन्दा के बाहरी भाग से कुछ दूर · कोल्लाक' नाम सन्निवेश था । उस में बहुल नामक ब्राह्मण रहता था । यह आढ्य यावत् अपरिभूत था और ऋग्वेद में यावत् निपुण था। उस बहुल ब्राह्मण ने कार्तिकी चौमासी की प्रतिपदा के दिन प्रचुर मधु और घृत से संयुक्त परमान्न का भोजन ब्राह्मणों को कराया एवं आचामित कराया। तभी मैं चतुर्थ मासक्षमण के पारणे के लिए नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होकर कोल्लाक सन्निवेश आया। वहाँ उच्च, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षार्थ पर्यटन करता हुआ में बहुल ब्राह्मण के घर में प्रविष्ट हुआ ।
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उस समय बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते देखा; यावत्- मैं मधु और घी से संयुक्त परमान्न से प्रतिलाभित करूँगा,' ऐसा विचार कर वह सन्तुष्ट हुआ । यावत्- 'बहुल ब्राह्मण का मनुष्यजन्म और जीवनफल प्रशंसनीय है। उस समय मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे तन्तुवायशाला में नहीं देखा तो, राजगृह नगर के बाहर और भीतर सब ओर मेरी खोज की; परन्तु कहीं भी मेरी श्रुति, क्षुति और प्रवृत्ति न पाकर पुनः तन्तुवायशाला में लौट गया । वहाँ उसने शाटिकाएं, पाटिकाएं, कुण्डिकाएं, उपानत् एवं चित्रपट आदि ब्राह्मणों को दे दिए । फिर दाढ़ी-मूँछ सहित मुण्डन करवाया । इसके पश्चात् वह तन्तुवायशाला से बाहर नीकला और नालन्दा से बाहरी भाग के मध्य में से चलता हुआ कोल्लाक सन्निवेश में आया। उस समय उस कोल्लाक सन्निवेश के बाहर बहुत से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे देवानुप्रियो धन्य है बहुल ब्राह्मण यावत् बहुल ब्राह्मण का मानवजन्म और जीवनरूप फल प्रशंसनीय है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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