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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक की भार्या थी । वह सुकुमाल हाथ-पैर वाली यावत् प्रतिरूप थी । किसी समय वह भद्रा नामक भार्या गर्भवती हुई शरवण सन्निवेश था । वह ऋद्धि-सम्पन्न, उपद्रव-रहित यावत् देवलोक के समान प्रकाशवाला और मन को प्रसन्न करनेवाला था, यावत् प्रतिरूप था । उन सन्निवेशमें गोबहुल नामक ब्राह्मण रहता था । वह आढ्य यावत् अपराभूत था । वह ऋग्वेद आदि वैदिकशास्त्रों के विषय में भलीभाँति निपुण था । उस गोबहुल ब्राह्मण की एक गोशाला थी।
एक दिन वह मंखली नामक भिक्षाचर (मंख) अपनी गर्भवती भार्या भद्रा को साथ लेकर नीकला । वह चित्रफलक हाथ में लिए हुए चित्र बताकर आजीविका करने वाले भिक्षुकों की वृत्ति से (मंखत्व से) अपना जीवन यापन करता हुआ, क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ जहाँ शरवण नामक सन्निवेश था और जहाँ गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला थी, वहाँ आया । फिर उसने गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में अपना भाण्डोपकरण रखा । वह शरवण सन्निवेश में उच्च-नीच-मध्यम कुलों के गृहसमूह में भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुआ वसति में चारों
ओर सर्वत्र अपने निवास के लिए स्थान की खोज करने लगा । सर्वत्र पूछताछ और गवेषणा करने पर भी जब कोई निवासयोग्य स्थान नहीं मिला तो उसने उसी गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में वर्षावास बिताने के लिए निवास किया । उस भद्रा भार्या ने पूरे नौ मास और साढ़े सात रात्रिदिन व्यतीत होने पर एक सुकुमाल हाथ-पैर वाले यावत् सुरूप पुत्र को जन्म दिया । ग्यारहवाँ दिन बीत जाने पर यावत् बारहवें दिन उस बालक के माता-पिता ने इस प्रकार का गौण, गुणनिष्पन्न नामकरण किया कि हमारा यह बालक गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला में जन्मा है, इसलिए हमारे इस बालक का नाम गोशालक हो । तदनन्तर वह बालक गोशालक बाल्यावस्था को पार करके एवं विज्ञान से परिपक्व बुद्धि वाला होकर यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ । तब उसने स्वयं व्यक्तिगत रूप से चित्र-फलक तैयार किया । उस चित्रफलक को स्वयं हाथ में लेकर मंखवृत्ति से आत्मा को भावित करता हआ विचरण करने लगा। सूत्र-६३९
उस काल उस समय में, हे गौतम ! मैं तीस वर्ष तक गृहवास में रहकर, माता-पिता के दिवंगत हो जाने पर भावना नामक अध्ययन के अनुसार यावत् एक देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करके मुण्डित हुआ और गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हुआ । हे गौतम ! मैं प्रथम वर्ष में अर्द्धमास-अर्द्धमास क्षमण करते हुए अस्थिक ग्राम की निश्रा में, प्रथम वर्षाऋतु अवसर पर वर्षावास के लिए आया । दूसरे वर्ष में मैं मास-मास-क्षमण करता हुआ, क्रमशः विचरण करता और ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ राजगृह नगर में नालन्दा पाड़ा के बाहर, जहाँ तन्तुवाय शाला थी, वहाँ आया । उस के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह करके मैं वर्षावास के लिए रहा । हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण
स्वीकार करके कालयापन करने लगा। उस समय वह मंखलिपुत्र गोशालक चित्रफलक हाथ में लिए हुए मंखपन से आजीविका करता हुआ क्रमशः विचरण करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, राजगृह नगर में नालंदा पाड़ा के बाहरी भाग में, जहाँ तन्तुवायशाला थी, वहाँ आया । तन्तुवायशाला के एक भाग में उसने अपना भाण्डोपकरण रखा । राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुल में भिक्षाटन करते हुए उसने वर्षावास के लिए दूसरा स्थान ढूँढ़ने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उसे अन्यत्र कहीं भी निवासस्थान नहीं मिला, तब उसी तन्तुवायशाला के एक भाग में, हे गौतम ! जहाँ मैं रहा हआ था, वहीं, वह भी वर्षावास के लिए रहने लगा।
तदनन्तर, हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण के पारणे के दिन तन्तुवायशाला से नीकला और फिर नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होता हुआ राजगृह नगर में आया । वहाँ ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करते हुए मैंने विजय नामक गाथापति के घर में प्रवेश किया । उस समय विजय गाथापति मुझे आते हुए देख अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । वह शीघ्र ही अपने सिंहासन से उठा और पादपीठ से नीचे ऊतरा । फिर उसने पैर से खड़ाऊं नीकाली । एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया । दोनों हाथ जोड़कर सात-आठ कदम मेरे सम्मुख आया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया । फिर वह ऐसा विचार करके अत्यन्त संतुष्ट हुआ कि मैं आज भगवान को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप आहार से प्रतिलाभुंगा । वह प्रतिलाभ लेता हुआ भी संतुष्ट हो रहा था और प्रतिलाभित होने के बाद भी सन्तुष्ट रहा । उस विजय गाथापति ने उस दान में द्रव्य शुद्धि से, दायक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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