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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक
शतक-१५ सूत्र-६३७
भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो ।
उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्व-दिशाभाग में कोष्ठक नामक चैत्य था । उस श्रावस्ती नगरी में आजीविक (गोशालक) मत की उपासिका हालाहला नामकी कुम्भारिन रहती थी । वह आढ्य यावत् अपरिभूत थी । उसने आजीविकसिद्धान्त का अर्थ प्राप्त कर लिया था, सिद्धान्त के अर्थ को ग्रहण कर लिया था, उसका अर्थ पूछ लिया था, अर्थ का निश्चय कर लिया था । उसकी अस्थि
और मज्जा प्रेमानुराग से रंग गई थी। हे आयुष्मन् ! यह आजीविकसिद्धान्त ही सच्चा अर्थ है, यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ हैं, इस प्रकार वह आजीविकसिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करती हुई रहती थी। उस काल उस समय में चौबीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशालक, हालाहला कुम्भारिन की कुम्भकारापण में आजीवकसंघ से परिवृत्त होकर आजीविकसिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता था।
तदनन्तर किसी दिन उस मंखलिपुत्र गोशालक के पास ये छह दिशाचर आए यथा-शोण, कनन्द, कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निर्वैश्यायन और गौतम पुत्र अर्जुन । तत्पश्चात् उन छह दिशाचरों ने पूर्वश्रुत में कथित अष्टांग निमित्त, (नौवें गीत-) मार्ग तथा दसवें (नृत्य-) मार्ग को अपने अपने मति-दर्शनों से पूर्वश्रुत में से उद्धृत किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के पास उपस्थित हुए । तदनन्तर वह मंखलिपुत्र गोशालक, उस अष्टांग महा-निमित्त के किसी उपदेश द्वारा सर्व प्राणों, सभी भूतों, समस्त जीवों और सभी सत्त्वों के लिए इन छह अतिनिक्र-मणीय बातों के विषय में उत्तर देने लगा । वे छह बातें यह हैं-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन और मरण । और तब मंखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महानिमित्त के स्वल्पदेशमात्र से श्रावस्ती नगरी में जिन नहीं होते हुए भी, मैं जिन हूँ इस प्रकार प्रलाप करता हुआ, अर्हन्त न होते हुए भी, मैं अर्हन्त हूँ, इस प्रकार का बकवास करता हुआ, केवली न होते हुए भी, मैं केवली हूँ। इस प्रकार का मिथ्याभाषण करता हुआ, सर्वज्ञ न होते हुए भी मैं सर्वज्ञ हूँ इस प्रकार मृषाकथन करता हुआ और जिन न होते हुए भी अपने लिए जिनशब्द का प्रयोग करता था। सूत्र-६३८
इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे-हे देवानुप्रियो ! निश्चित है कि गोशालक मंखलिपुत्र जिन होकर अपने
को जिन कहता हआ, यावत जिन शब्द में अपने आपको प्रकट करता हआ विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना जाए ? उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर वहाँ पधारे, यावत् परीषद् धर्मोपदेश सूनकर वापिस चली गई। श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् छठ-छठ पारणा करते थे; इत्यादि वर्णन दूसरे शतक के पाँचवे निर्ग्रन्थ-उद्देशक के अनुसार समझना । यावत् गोचरी के लिए भ्रमण करते हुए गौतमस्वामी ने बहुत-से लोगों के शब्द सूने, बहुत-से लोक परस्पर इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे कि देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन होकर अपने आपको जिन कहता हआ, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है। उसकी यह बात कैसे मानी जाए ? भगवान गौतम को बहत-से लोगों से यह बात सूनकर एवं मनमें अवधारण कर यावत् प्रश्न पूछने की श्रद्धा उत्पन्न हुई, यावत् भगवान को आहार-पानी दिखाया फिर यावत् पर्युपासना करते हुए बोले-यावत् गोशालक जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, तो हे भगवन् ! उसका यह कथन कैसा है? मैं मंखलिपुत्र गोशालक का जन्मसे लेकर अन्त तक का वृत्तान्त सूनना चाहता हूँ
श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से कहा-गौतम ! बहुत-से लोग, जो परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपित करते हैं कि मंखलिपुत्र गोशालक जिन होकर तथा अपने आपको जिन कहता हुआ यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, यह बात मिथ्या है । हे गौतम ! मैं कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि मंखलिपुत्र गोशालक का, मंखजाति का मंखली नामक पिता था । उस मंखजातीय मंखली की भद्रा नाम
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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