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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक खाद्य और स्वाद्य तैयार करवा लिया; परन्तु शंख श्रमणोपासक अभी तक नहीं आए, देवानुप्रियो ! हमे शंख श्रमणोपासक को बुला लाना श्रेयस्कर है । इसके बाद उस पुष्कली श्रमणोपासक ने कहा- देवानुप्रियो ! तुम सब अच्छी तरह स्वस्थ और विश्वस्त होकर बैठो, मैं शंख श्रमणोपासक को बुलाकर लाता हूँ | यों कहकर वह श्रावस्ती नगरी में जहाँ शंख श्रमणोपासक का घर था, वहाँ आकर उसने शंख श्रमणोपासक के घर में प्रवेश किया।
पुष्कली श्रमणोपासक को आते देखकर, वह उत्पला श्रमणोपासिका हर्षित और सन्तुष्ट हुई । वह अपने आसन से उठी और सात-आठ कदम सामने गई। पुष्कली श्रमणोपासक को वन्दन-नमस्कार किया, और आसन पर बैठने को कहा । फिर पछा- कहिए. देवानप्रिय! आपके आने का क्या प्रयोजन है। पष्कली श्र उत्पला श्रमणोपासिका से कहा- देवानुप्रिये ! शंख श्रमणोपासक कहाँ है ?' उत्पला- देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि वह पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके ब्रह्मचर्ययुक्त होकर यावत् (धर्मजागरणा कर) रहे हैं । तब वह पुष्कली श्रमणोपासक, जिस पौषधशाला में शंख श्रमणोपासक था, वहाँ उसके पास आया और उसने गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । फिर शंख श्रमणोपासक को वन्दन-नमस्कार करके बोला- देवानुप्रिय ! हमने वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करा लिया है । अतः देवानुप्रिय ! अपन चलें और वह विपुल अशनादि आहार एक दूसरे को देते और उपभोगादि करते हुए पौषध करके रहें। शंख श्रमणोपासक ने पुष्कली श्रमणो-पासक से कहा- देवानुप्रिय ! मेरे लिए उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का उपभोग आदि करते हुए पौषध करना कल्पनीय नहीं है । मेरे लिए पौषधशाला में पौषध अंगीकार करके यावत् धर्मजागरणा करते हुए रहना कल्पनीय है। अतः हे देवानुप्रिय ! तुम सब अपनी ईच्छानुसार उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार का उपभोग आदि करते हुए यावत् पौषध का अनुपालन करो।
तदनन्तर वह पुष्कली श्रमणोपासक, शंख श्रमणोपासक की पौषधशाला से लौटा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर, जहाँ वे (साथी) श्रमणोपासक थे, वहाँ आया । फिर उन श्रमणोपासकों से बोला-शंख श्रमणोपासक निराहार-पौषधव्रत अंगीकार करके स्थित है । उसने कह दिया कि देवानुप्रियो ! तुम सब स्वेच्छानुसार उस विपुल अशनादि आहार को परस्पर देते हुए यावत् उपभोग करते हुए पौषध का अनुपालन करो । शंख श्रमणो-पासक अब नहीं आएगा। यह सूनकर उन श्रमणोपासकों ने उस विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यरूप आहार को खाते-पीते हुए यावत् पौषध करके धर्मजागरणा की।
इधर उस शंख श्रमणोपासक को पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर, पिछली रात्रि के समय में धर्मजागरिकापूर्वक जागरणा करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुआ- कल प्रातःकाल यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके यावत् उनकी पर्युपासना करके वहाँ से लौट कर पाक्षिक पौषध पारित करूँ । प्रातःकाल सूर्योदय होने पर अपनी पौषधशाला से बाहर नीकला । शुद्ध एवं सभा में प्रवेश करने योग्य मंगल वस्त्र ठीक तरह से पहने, और अपने घर से चला । वह पैदल चलता हुआ श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर भगवान की सेवा में पहुँचा, यावत् उनकी पर्युपासना करने लगा । वहाँ अभिगम नहीं (कहना चाहिए) । तदनन्तर वे सब श्रमणोपासक, (दूसरे दिन) प्रातःकाल यावत् सूर्योदय होने पर स्नानादि (नित्यकृत्य) करके यावत् शरीर को अलंकृत करके अपने-अपने घरों से नीकले और एक स्थान पर मिले । फिर सब मिलकर पूर्ववत् भगवान की सेवा में पहुँचे, यावत् पर्युपासना करने लगे।
भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों और उस महती महापरीषद् को यावत्-धर्मदेशना दी । बाद वे सभी श्रमणोपासक श्रमण भगवान महावीर से धर्म श्रवण कर और हृदय में अवधारणा करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए। फिर उन्होंने खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । तदनन्तर वे शंख श्रमणोपासक के पास आए और कहने लगे-देवानुप्रिय! कल आपने ही हमें कहा था कि देवानुप्रियो ! तुम प्रचूर अशनादि तैयार करवाओ, हम आहार देते हुए यावत् उपभोग करते हुए पौषध का अनुपालन करेंगे । किन्तु फिर आप आए नहीं और आपने अकेले ही पौषधशाला में यावत् निराहार पौषध कर लिया । अतः देवानुप्रिय ! आपने हमारी अच्छी अवहेलना की!" भगवान
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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