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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक
५/२] भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति
अंगसूत्र- ५/२ - हिन्दी अनुवाद
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शतक-१२ सूत्र- ५२९
___ बारहवें शतक में दस उद्देशक हैं-(१) शंख, (२) जयन्ती, (३) पृथ्वी, (४) पुद्गल, (५) अतिपात, (६) राहु, (७) लोक, (८) नाग, (९) देव और (१०) आत्मा।
शतक-१२ - उद्देशक-१ सूत्र-५३०
उस काल और उस समय में श्रावस्ती नगरी थी । कोष्ठक उद्यान था, उस श्रावस्ती नगरी में शंख आदि बहुतसे श्रमणोपासक रहते थे। (वे) आढ्य यावत् अपरिभूत थे; तथा जीव, अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञाता थे, यावत् विचरते थे । उस शंख श्रमणोपासक की भार्या उत्पला थी । उसके हाथ-पैर अत्यन्त कोमल थे, यावत् वह रूपवती एवं श्रमणोपासिका थी, जीव-अजीव आदि तत्त्वों की जानने वाली यावत् विचरती थी। उसी श्रावस्ती नगरीमें पुष्कली नामका श्रमणोपासक रहता था । वह भी आढ्य यावत् जीव-अजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था यावत् विचरता था।
उस काल और उस समय में महावीर स्वामी श्रावस्ती पधारे । परीषद् वन्दन के लिए गई, यावत् पर्युपासना करने लगी। तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक भी, आलभिका नगरी के श्रमणोपासक के समान उनके वन्दन एवं धर्मकथाश्रवण आदि के लिए गए यावत् पर्युपासना करने लगे । श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को और महती महापरीषद् की धर्मकथा कही । यावत् परीषद् वापिस चली गई । वे श्रमणोपासक भगवान महावीर के पास धर्मोपदेश सूनकर और अवधारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुए । उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, तथा उनका अर्थ ग्रहण किया । फिर उन्होंने खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और कोष्ठक उद्यान से नीकलकर श्रावस्ती नगरी की ओर जाने का विचार किया। सूत्र-५३१
उस शंख श्रमणोपासक ने दूसरे श्रमणोपासकों से कहा-देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराओ। फिर हम उस प्रचुर अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते हए, विस्वादन करते हुए, एक दूसरे को देते हुए भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध का अनुपालन करते हुए अहोरात्र-यापन करेंगे । इस पर उन श्रमणोपासकों ने शंख श्रमणोपासक की इस बात को विनयपूर्वक स्वीकार किया।
तदनन्तर उस शंख श्रमणोपासक को एक ऐसा अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुआ- उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन, विस्वादन, परिभाग और परिभोग करते हुए पाक्षिक पौषध (करके) धर्मजागरणा करना मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं प्रत्युत अपनी पौषध-शाला में, ब्रह्मचर्यपूर्वक, मणि, सुवर्ण आदि के त्यागरूप तथा माला, वर्णक एवं विलेपन से रहित, और शस्त्र-मूसल आदि के त्यागरूप पौषध का ग्रहण करके दर्भ के संस्तारक पर बैठकर अकेले को ही पाक्षिक पौषध के रूप में धर्मजागरणा करते हुए विचरण करना श्रेयस्कर है। इस प्रकार विचार करके वह श्रावस्ती नगरी में जहाँ अपना घर था, वहाँ आया, (और अपनी धर्मपत्नी) उत्पला श्रमणोपासिका से पूछा । फिर पौषधशाला में प्रवेश किया। पौषधशाला का प्रमार्जन किया; उच्चारण-प्रस्रवण की भूमि का प्रति-लेखन किया । डाभ का संस्तारक बिछाया और उस पर बैठा । फिर पौषधशाला में उसने ब्रह्मचर्य यावत् पाक्षिक पौषध पालन करते हुए, (अहोरात्र) यापन किया।
तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक श्रावस्ती नगरी में अपने-अपने घर पहुँचे । और उन्होंने पुष्कल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया । एक दूसरे को बुलाया और परस्पर कहने लगे-देवानुप्रियो ! हमने तो पुष्कल अशन, पान,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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