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________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2' शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना । द्वीन्द्रिय जीव सात स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा-इष्टानिष्ट रस इत्यादि, शेष एकेन्द्रिय जीवों के समान । त्रीन्द्रिय जीव आठ स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा-इष्टानिष्ट गन्ध इत्यादि, शेष द्वीन्द्रिय जीवों के समान । चतुरिन्द्रिय जीव नौ स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा-इष्टानिष्ट रूप इत्यादि शेष त्रीन्द्रिय जीवों के समान । पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते हैं, यथा-इष्टानिष्ट शब्द यावत् इष्टानिष्ट पुरुषकार-पराक्रम । इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों तक असुरकुमारों के समान कहना। सूत्र - ६१४ भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को एक बार उल्लंघन करने अथवा बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को उल्लंघन एवं प्रलंघन करने में समर्थ है? हाँ, समर्थ है। हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। शतक-१४ - उद्देशक-६ सूत्र - ६१५ राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! नैरयिक जीव किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? किस तरह परिणमाते हैं? उनकी योनि क्या है ? उनकी स्थिति का क्या कारण है ? गौतम ! नैरयिक जीव पदगलों का आहार करते हैं और उसका पुदगल-रूप परिणाम होता है। उनकी योनि शीतादि स्पर्शमय पुद्गलों वाली है। आयुष्य कर्म के पुद्गल उनकी स्थिति के कारण हैं । बन्ध द्वारा वे ज्ञानावरणीयादि कर्म के पुद्गलों को प्राप्त हैं । उनके नारक-त्वनिमित्तभूत कर्म निमित्तरूप हैं । कर्मपदगलों के कारण उनकी स्थिति है। कर्मों के कारण ही वे विपर्यास को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना। सूत्र-६१६ भगवन ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का आहार करते हैं अथवा अवीचिद्रव्यों का ? गौतम ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक...यावत् अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं ? गौतम ! जो नैरयिक एक प्रदेश न्यून द्रव्यों का आहार करते हैं, वे वीचिद्रव्यों का आहार करते हैं और जो परिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे नैरयिक अवीचि-द्रव्यों का आहार करते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए। सूत्र-६१७ भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र भोग्य मनोज्ञ दिव्य स्पर्शादि विषयभोगों को उपभोग करना चाहता है, तब वह किस प्रकार करता है ? गौतम ! उस समय देवेन्द्र देवराज शक्र, एक महान् चक्र के सदृश गोलाकार स्थान की विकुर्वणा करता है, जो लम्बाई-चौड़ाई में एक लाख योजन होता है। उसकी परिधि तीन लाख कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल होती है । चक्र के समान गोलाकार उस स्थान के ऊपर अत्यन्त समतल एवं रमणीय भूभाग होता है, यावत् मणियों का मनोज्ञ स्पर्श होता है; वह उस चक्राकार स्थान के ठीक मध्यभाग में एक महान् प्रासादावतं-सक की विकुर्वणा करता है । जो ऊंचाई में पाँच सौ योजन होता है । उसका विष्कम्भ ढाई सौ योजन होता है । वह प्रासाद न्त ऊंचा और प्रभापुञ्ज से व्याप्त होने से मानो वह हँस रहा हो, इत्यादि यावत्-वह दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होता है उस प्रासादावतंसक का उपरितल पद्मलताओं के चित्रण से विचित्र यावत् प्रतिरूप होता है। भीतर का भूभाग अत्यन्त सम और रमणीय होता है, इत्यादि वर्णन-वहाँ मणियों का स्पर्श होता है, तक जानना । वहाँ लम्बाई-चौड़ाई में आठ योजन की मणिपीठिका होती है, जो वैमानिक देवों के मणिपीठिका के समान होती है। उस मणिपीठिका के ऊपर वह एक महान् देवशय्या की विकुर्वणा करता है । उस देवशय्या का वर्णन करना चाहिए। वहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र अपने-अपने परिवार सहित आठ अग्रमहिषियों के साथ गन्धर्वानीक और नाट्यानीक, के साथ मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 53
SR No.034672
Book TitleAgam 05 Bhagwati Sutra Part 02 Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 05, & agam_bhagwati
File Size6 MB
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