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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक जोर-जोर से आहरत हुए नाट्य, गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करता है।
भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करना चाहता है, तब वह कैसे करता है? शक्र के अनुसार समग्र कथन ईशान इन्द्र के लिए करना चाहिए । इसी प्रकार सनत्कुमार के विषय में भी कहना चाहिए । विशेषता यह है कि उनके प्रासादावतंसक की ऊंचाई छह सौ योजन और विस्तार तीन सौ योजन होता है। आठ योजन की मणिपीठिका का उसी प्रकार वर्णन करना चाहिए। उस मणिपीठिका के ऊपर वह अपने परिवार के योग्य आसनों सहित एक महान् सिंहासन की विकुर्वणा करता है। वहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देवों के साथ यावत् दो लाख ८८ हजार आत्मरक्षक देवों के साथ और सनत्कुमार कल्पवासी बहुत-से वैमानिक देव-देवियों के साथ प्रवृत्त होकर महान् गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य विषयभोगों का उपभोग करता हुआ विचरण करता है । सनत्कुमार के समान प्राणत और अच्युत देवेन्द्र तक कहना । विशेष यह है कि जिसका जितना परिवार हो, उतना कहना। अपने-अपने कल्प के विमानों की ऊंचाई के बराबर प्रा तथा उनकी ऊंचाई से आधा विस्तार कहना, यावत् अच्युत देवलोक का प्रासादावतंसक नौ सौ योजन ऊंचा है और चार सौ पचास योजन विस्तृत है। हे गौतम ! उसमें देवेन्द्र देवराज अच्युत, दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् भोगों का उपभोग करता हआ विचरता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१४ - उद्देशक-७ सूत्र - ६१८
राजगृह नगर में यावत् परीषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई । श्रमण भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! तू मेरे साथ चिर-संश्लिष्ट है, हे गौतम ! तू मेरा चिर-संस्तृत है, तू मेरा चिर-परिचित भी है । गौतम ! तू मेरे साथ चिर-सेवित या चिरप्रीत है। चिरकाल से हे गौतम ! तू मेरा अनुगामी है। तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है, गौतम ! इससे पूर्व के भवों में (स्नेह सम्बन्ध था)। अधिक क्या कहा जाए, इस भव में मृत्यु के पश्चात्, इस शरीर से छूट जाने पर, इस मनुष्यभव से च्युत होकर हम दोनों तुल्य और एकार्थ तथा विशेषतारहित एवं किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित हो जाएंगे। सूत्र-६१९
भगवन् ! जिस प्रकार हम दोनों इस अर्थ को जानते-देखते हैं, क्या उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं ? हाँ, गौतम ! हम दोनों के समान अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं।
भगवन् ! क्या कारण है कि जिस प्रकार हम दोनों इस बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी जानते-देखते हैं ? गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को (अवधिज्ञान की लब्धि से) मनोद्रव्य की अनन्त वर्गणाएं लब्ध हैं, प्राप्त हैं, अभिसमन्वागत होती हैं । इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि यावत् जानते-देखते हैं सूत्र-६२०
भगवन् ! तुल्य कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम छह प्रकार का यथा-द्रव्यतुल्य, क्षेत्रतुल्य, काल-तुल्य, भवतुल्य, भावतुल्य और संस्थानतुल्य ।
भगवन्! द्रव्यतुल्य द्रव्यतुल्य क्यों कहलाता है ? गौतम ! एक परमाणु-पुद्गल, दूसरे परमाणु-पुद्गल से द्रव्यतः तुल्य है, किन्तु परमाणु-पुद्गल से भिन्न दूसरे पदार्थों के साथ द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार एक
शक स्कन्ध दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तल्य है, किन्त द्विप्रदेशिक स्कन्ध से व्यतिरिक्त दूसरे स्कन्ध के साथ द्विप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध तक कहना चाहिए। एक तुल्य-संख्यात-प्रदेशिक-स्कन्ध, दूसरे तुल्य-संख्यात-प्रदेशिक स्कन्ध के साथ द्रव्य से तुल्य है परन्तु तुल्यसंख्यात-प्रदेशिक-स्कन्ध से व्यतिरिक्त दूसरे स्कन्ध के साथ द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार तुल्य-असंख्यातप्रदेशिक-स्कन्ध के विषय में भी कहना चाहिए । तुल्य-अनन्त-प्रदेशिक-स्कन्ध के विषय में भी इसी प्रकार जानना । इसी कारण से हे गौतम! 'द्रव्यतुल्य द्रव्यतुल्य कहलाता है।
भगवन्! क्षेत्रतुल्य क्षेत्रतुल्य क्यों कहलाता है ? गौतम ! एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गल दूसरे एकप्रदेशावगाढ़ पुद्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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