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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-६११
भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार का कहा है ? गौतम ! दो प्रकार का । यथा-जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम । इस प्रकार यहाँ परिणामपद कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है।
शतक-१४ - उद्देशक-५ सूत्र-६१२
भगवन् ! नैरयिक जीव अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकता है ? गौतम ! कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । भगवन् ! यह किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के हैं यथा-विग्रह गतिसमापन्नक और अविग्रहगति-समापन्नक । उनमें से जो विग्रहगति-समापन्नक नैरयिक हैं, वे अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकते हैं । भगवन् ! क्या वे अग्नि से जल जाते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उन पर अग्निरूप शस्त्र नहीं चल सकता । उनमें से जो अविग्रहगति समापन्नक नैरयिक हैं वे अग्निकाय के मध्य में होकर नहीं जा सकते, इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोइ नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता।
भगवन् ! असुरकुमार देव अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकते हैं ? गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गए हैं, यथाविग्रहगति-समापन्नक और अविग्रहगति-समापन्नक । उनमें से जो विग्रहगति-समापन्नक असुरकुमार हैं, वे नैरयिकों के समान हैं, यावत् उन पर अग्नि-शस्त्र असर नहीं कर सकता । उनमें जो अविग्रहगति-समापन्नक असुर-कुमार हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में होकर जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । जो अग्नि के मध्य में होकर जाता है, क्या वह जल जाता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर अग्नि आदि शस्त्र का असर नहीं होता । इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई असुरकुमार जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । इसी प्रकार स्तनितकुमार देव तक कहना । एकेन्द्रियों के विषय में नैरयिकों के समान कहना।
भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव अग्निकाय के मध्य में से होकर जा सकते हैं ? असुरकुमारों के अनुसार द्वीन्द्रियों के विषय में कहना । परन्तु इतनी विशेषता है-भगवन् ! जो द्वीन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जाते हैं, वे जल जाते हैं ? हाँ, वे जल जाते हैं । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार का कथन चतुरिन्द्रिय तक करना । भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव अग्नि के मध्य में होकर जा सकते हैं ? गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के हैं, यथा-विग्रहगति समापन्नक और अविग्रहगति समापन्नक | जो विग्रहगति समापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हैं, उनका कथन नैरयिक के समान जानना, यावत् उन पर शस्त्र असर नहीं करता । अविग्रहसमापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैंऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त । जो ऋद्धिप्राप्त, पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में होकर जाता है और कोई नहीं जाता है । जो अग्नि में होकर जाता है, क्या वह जल जाता है ? यह अर्थ समर्थ नहीं, क्योंकि उस पर शस्त्र असर नहीं करता । परन्तु जो ऋद्धि-अप्राप्त पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हैं, उनमें से भी कोई अग्नि में होकर जाता है और कोई नहीं जाता है। जो अग्नि में से होकर जाता है, क्या वह जल जाता है ? हाँ, वह जल जाता है। इसी
! ऐसा कहा गया है कि कोई अग्नि में से होकर जाता है और कोई नहीं जाता है । इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना । वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के विषय में असुर-कुमारों के समान कहना। सूत्र-६१३
नैरयिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं । यथा-अनिष्ट शब्द, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गन्ध, अनिष्ट रस, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्य, अनिष्ट यश:कीर्ति और अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य
और पुरुषकार-पराक्रम । असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा-इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट उत्थान, कर्म,बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए।
पृथ्वीकायिक जीव छह स्थानों का अनुभव करते रहते हैं । यथा-इष्ट-अनिष्ट स्पर्श, इष्ट-अनिष्ट गति, यावत्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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