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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक ज्ञान की उत्पत्ति के महोत्सवों पर, परिनिर्वाण-महोत्सवों जैसे अवसरों पर हे गौतम ! असुरकुमार देव वृष्टि करते हैं। इसी प्रकार नागकुमार देव भी वृष्टि करते हैं । स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार कहना चाहिए । वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। सूत्र-६०२
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करना चाहता है, तब किस प्रकार करता है ? गौतम ! वह आभ्यन्तर परीषद् के देवों को बुलाता है, वे आभ्यन्तर परीषद् के देव मध्यम परीषद् के देवों को बुलाते हैं, इत्यादि सब वर्णन; यावत्-तब बुलाये हुए वे आभियोगिक देव तमस्कायिक देवों को बुलाते हैं, और फिर वे समाहूत तमस्कायिक देव तमस्काय करते हैं; यहाँ तक शक्रेन्द्र के समान जानना । हे गौतम ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करता है। भगवन् ! क्या असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं। भगवन्! असुरकुमार देव किस कारण से तमस्काय करते हैं ? गौतम ! क्रीड़ा और रति के निमित्त, शत्रु को विमोहित करने के लिए, गोपनीय धनादि की सुरक्षा के हेतु, अथवा अपने शरीर को प्रच्छादित करने के लिए, हे गौतम ! इन कारणों से असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । हे भगवन ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१४ - उद्देशक-३ सूत्र -६०३
भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर-नीकल जाता है ? गौतम ! कोई नीकल जाता है, और कोई नहीं जाता है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! देव दो प्रकार के हैं, मायीमिथ्यादष्टि-उपपन्नक एवं अमायी-सम्यग्दष्टि-उपपन्नक । इन दोनों में से जो मायी-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक देव होता है, वह भावितात्मा अनगार को देखता है, (किन्तु) देखकर न तो वन्दना-नमस्कार करता है, न सत्कार-सम्मान करता है और न ही कल्याणरूप, मंगलरूप, देवतारूप एवं ज्ञानवान मानता है, यावत् न पर्युपासना करता है । ऐसा वह देव भावितात्मा अनगारके बीचहोकर चला जाता है, किन्तु जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देव होता है, वह भावितात्मा अनगार को देखता है । देखकर वन्दना-नमस्कार, सत्कार-सम्मान करता है, यावत् पर्युपासना करता है। ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीचमें होकर नहीं जाता। भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर असुरकुमार देव भावितात्मा अनगार के मध्यमें होकर जाता है ? गौतम ! पूर्ववत् समझना । इसी प्रकार देव-दण्डक वैमानिकों तक कहना। सूत्र - ६०४
भगवन् ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म, अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह, आसना-भिग्रह, आसनाऽनुप्रदान, अथवा नारक के सम्मुख जाना, बैठे हुए आदरणीय व्यक्ति की सेवा करना, उठकर जाते हुए के पीछे जाना इत्यादि विनय-भक्ति है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान यावत् अनुगमन आदि विनयभक्ति होती है ? हाँ, गौतम ! इसी प्रकार स्तनितकुमार देवों तक (कहना चाहिए) । नैरयिकों के अनुसार पृथ्वीकायादि से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना । भगवन् ! क्या पंचे-न्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों में सत्कार, सम्मान, यावत् अनुगमन आदि विनय हैं ? हाँ, गौतम ! हैं, परन्तु इनमें आसनाभिग्रह या आसनाऽनुप्रदानरूप विनय नहीं है। असुरकुमारों के समान मनुष्यों से लेकर वैमानिकों तक कहना। सूत्र - ६०५
भगवन् ! अल्पऋद्धि वाला देव, क्या महर्द्धिक देव के मध्य में होकर जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है । भगवन् ! समर्द्धिक देव, सम-ऋद्धि वाले देव के मध्य में से होकर जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु प्रमत्त हो तो जा सकता है । भगवन् ! मध्य में होकर जाने वाले देव, शस्त्र का प्रहार करके जा सकता है या बिना प्रहार किये ही जा सकता है ? गौतम ! वह शस्त्राक्रमण करके जा सकता है, बिना शस्त्राक्रमण किये नहीं । भगवन् ! वह देव, पहले शस्त्र का आक्रमण करके पीछे जाता है, अथवा पहले जाकर तत्पश्चात् शस्त्र से आक्रमण करता है ? गौतम ! पहले शस्त्र का प्रहार करके फिर जाता है, किन्तु पहले जाकर फिर शस्त्र-प्रहार नहीं करता । इस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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