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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक नैरयिक अनन्तर-निर्गत भी होते हैं, परम्पर-निर्गत भी होते हैं और अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत भी होते हैं । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है? गौतम ! जिन नैरयिकों को नरक से नीकले प्रथम समय ही है, वे अनन्तर-निर्गत हैं, जो नैरयिक अप्रथम निर्गत हुए हैं, वे परम्पर-निर्गत हैं और जो नैरयिक विग्रहगति-समापन्नक हैं, वे अनन्तर-परम्परअनिर्गत हैं । इसी कारण, हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि नैरयिक जीव, यावत् अनन्तर-परम्पर -अनिर्गत भी हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना।
भगवन् ! अनन्तरनिर्गत नैरयिक जीव, क्या नारकायुष्य बाँधते हैं यावत् देवायुष्य बाँधते हैं ? गौतम ! वे न तो नरकायुष्य यावत् न ही देवायुष्य बाँधते हैं । भगवन् ! परम्पर-निर्गत नैरयिक, क्या नरकायु बाँधते हैं ? इत्यादि पृच्छा। गौतम ! वे नरकायुष्य भी बाँधते हैं, यावत् देवायुष्य भी बाँधते हैं । भगवन् ! अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत नैरयिक, क्या नारकायुष्य बाँधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! वे न तो नारकायुष्य बाँधते, यावत् न देवायुष्य बाँधते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । भगवन ! नैरयिक जीव क्या अनन्तर-खेदोपपन्नक हैं, परम्पर-खेदो-पपन्नक है अथवा अनन्तरपरम्परा-खेदानुपपन्नक हैं ? गौतम ! नैरयिक जीव, अनन्तर-खेदोपपन्नक भी हैं, परम्पर-खेदोपपन्नक भी हैं और अनन्तर-परम्पर-खेदानुपपन्नक भी हैं । पूर्वोक्त चार दण्डक कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१४ - उद्देशक-२ सूत्र-६००
भगवन् ! उन्माद कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! उन्माद दो प्रकार का कहा गया है, यथा-यक्षावेश से और मोहनीयकर्म के उदय से । इनमें से जो यक्षावेशरूप उन्माद है, उसका सखपूर्वक वेदन किया ज वह सुखपूर्वक छुड़ाया जा सकता है । (किन्तु) इनमें से जो मोहनीयकर्म के उदय से होने वाला उन्माद है, उसका दुःखपूर्वक वेदन होता है और दुःखपूर्वक ही उससे छूटकारा पाया जा सकता है।
भगवन् ! नारक जीवों में कितने प्रकार का उन्माद है ? गौतम ! दो प्रकार का, यथा-यक्षावेशरूप उन्माद और मोहनीयकर्म के उदय से होने वाला उन्माद । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! यदि कोई देव, नैरयिक जीव पर अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है, तो उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से वह नैरयिक जीव यक्षा-वेशरूप उन्माद को प्राप्त होता है और मोहनीयकर्म के उदय से मोहनीयकर्मजन्य-उन्माद को प्राप्त होता है। इस कारण, हे गौतम ! दो प्रकार का उन्माद कहा गया है।
भगवन् ! असुरकुमारों में कितने प्रकार का उन्माद कहा गया है ? गौतम ! नैरयिकों के समान उनमें भी दो प्रकार का उन्माद कहा गया है । विशेषता यह है कि उनकी अपेक्षा महर्द्धिक देव, उन असुरकुमारों पर अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है और वह उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से यक्षावेशरूप उन्माद को प्राप्त हो जाता है तथा मोहनीयकर्म के उदय से मोहनीयकर्मजन्य-उन्माद को प्राप्त होता है । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार स्तनितकुमारों के विषय में समझना । पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्यों तक नैरयिकों के समान कहना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्कदेव और वैमानिकदेवों के विषय में भी असुरकुमारों के समान कहना। सूत्र - ६०१
भगवन् ! कालवर्षी मेघ वृष्टिकाय बरसाता है ? हाँ, गौतम ! वह बरसाता है । भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करने की ईच्छा करता है, तब वह किस प्रकार वृष्टि करता है ? गौतम ! वह आभ्यन्तर परीषद् के देवों को बुलाता है । वे आभ्यन्तर परीषद् के देव मध्यम परीषद् के देवों को बुलाते हैं । वे मध्यम परीषद् के देव, बाह्य परीषद् के देवों को बुलाते हैं, वे बाह्य-परीषद् के देव बाह्य-बाह्य के देवों को बुलाते हैं । वे देव आभियोगिक देवों को बुलाते हैं। वे आभियोगिक देव वृष्टिकायिक देवों को बुलाते हैं और वृष्टिकायिक देव वृष्टि करते हैं । इस प्रकार देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करता है।
भगवन् ! क्या असुरकुमार देव भी वृष्टि करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं । भगवन् ! असुरकुमार देव किस प्रयोजन से वृष्टि करते हैं? गौतम! जो ये अरिहंत भगवान होते हैं, उनके जन्म-महोत्सवों पर, निष्क्रमण महोत्सवों पर,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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