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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक इतनी ही है कि प्रियवियोग का दुःसह अनुभव करने वाली रानी पद्मावती ने उनके अग्रकेश ग्रहण किए।
तदनन्तर केशी राजा ने दूसरी बार उत्तरदिशा में सिंहासन रखवा कर उदायन राजा का पुनः चाँदी के और सोने के कलशों से अभिषेक किया, इत्यादि शेष वर्णन जमाली के समान, यावत् वह शिबिका में बैठ गए । इसी प्रकार धायमाता के विषय में भी जानना चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ पद्मावती रानी हंसलक्षण वाले एक पट्टाम्बर को लेकर बैठी । शेष वर्णन जमाली के वर्णनानुसार है, यावत् वह उदायन राजा शिबिका से नीचे ऊतरा और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, उनके समीप आया, भगवन को तीन बार वन्दना-नमस्कार कर ईशानकोण में गया । वहाँ उसने स्वयमेव आभूषण, माला, और अलंकार उतारे इत्यादि पूर्ववत् । उनको पद्मावती देवी ने रख लिया । यावत् वह बोली- स्वामिन् ! संयम में प्रयत्नशील रहें, यावत् प्रमाद न करें- यों कहकर केशी राजा और पद्मावती रानी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और अपने स्थान को वापस चले गए। इसके पश्चात उदायन राजा ने स्वयं पंचमुष्टिक लोच किया । शेष वृत्तान्त ऋषभदत्त के अनुसार यावत्-सर्व दुःखों से रहित हो गए। सूत्र - ५८८
तत्पश्चात् किसी दिन रात्रि के पीछले प्रहर में कुटुम्ब-जागरण करते हुए अभीचिकुमार के मन में इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ- मैं उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत । फिर भी उदायन राजा ने मुझे छोड़कर अपने भानजे केशी कुमार को राजसिंहासन पर स्थापित करके श्रमण भगवान महावीर के पास यावत् प्रव्रज्या ग्रहण की है। इस प्रकार के इस महान् अप्रतीति-रूप मनो-मानसिक दुःख से अभिभूत बना हुआ अभीचि कुमार अपने अन्तःपुर-परिवार-सहित अपने भाण्डमात्रोपकरण को लेकर वीतिभय नगर से नीकल गया और अनुक्रम से गमन करता और ग्रामानुग्राम चलता हुआ चम्पा नगरी में कूणिक राजा के पास या । कूणिक राजा से मिलकर उसका आश्रय ग्रहण करके रहने लगा । यहाँ भी वह विपुल भोग-सामग्री से सम्पन्न हो गया । उस समय अभीचि कुमार श्रमणोपासक बना । वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् जीवनयापन करता था । (अभीचि कुमार) उदायन राजर्षि के प्रति वैर के अनुबन्ध से युक्त था।
उस काल, उस समय में (भगवान महावीर ने) इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के परिपार्श्व में असुर-कुमारों के चौंसठ लाख असुरकुमारावास कहे हैं । उस अभीचि कुमार ने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन किया और उस समय में अर्द्धमासिक संलेखना से तीस भक्त अनशन का छेदन किया । उस समय (उदायन राजर्षि के प्रति पूर्वोक्त वैरानुबन्धरूप पाप) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना मरण के समय कालधर्म को प्राप्त करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के निकटवर्ती चौंसठ लाख आताप नामक असुरकु-मारावासों में से किसी आताप नामक असुरकुमारावास में आतापरूप असुरकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ अभीचि देव की स्थिति भी एक पल्योपम की है । भगवन् ! वह अभीचि देव उस देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय होने के अनन्तर उद्वर्त्तन करके कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! वह वहाँ से च्यवकर महाविदेह-वर्ष (क्षेत्र) में सिद्ध होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१३ - उद्देशक-७ सूत्र-५८९
राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! भाषा आत्मा है या अन्य है ? गौतम ! भाषा आत्मा नहीं है, अन्य (आत्मा से भिन्न पुद्गलरूप) है । भगवन् ! भाषा रूपी है या अरूपी है ? गौतम ! भाषा रूपी है, वह अरूपी नहीं है। भगवन् ! भाषा सचित्त है या अचित्त है ? गौतम ! भाषा सचित्त नहीं है, अचित्त है। भगवन् ! भाषा जीव है, अथवा अजीव है ? गौतम! भाषा जीव नहीं है, वह अजीव है।
भगवन् ! भाषा जीवों के होती है या अजीवों के होती है ? गौतम ! भाषा जीवों के होती है, अजीवों के भाषा नहीं होती। भगवन् ! (बोलने से पूर्व भाषा कहलाती है या बोलते समय भाषा कहलाती है, अथवा बोलने का समय बीत जाने के पश्चात् भाषा कहलाती है ? गौतम ! बोलने से पूर्व भाषा नहीं कहलाती, बोलते समय भाषा कहलाती है;
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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