________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक वर्णन है, तदनुसार यहाँ भी पर्युपासना करता है; प्रभावती-प्रमुख रानियाँ भी उसी प्रकार यावत् पर्युपासना करती है। धर्मकथा कही । उस अवसर पर श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश सूनकर एवं हृदय में अवधारण करके उदायन नरेश अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए । वे खड़े हुए और फिर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् नमस्कार करके बोले-भगवन् ! जैसा आपने कहा, वैसा ही है, भगवन् ! यही तथ्य है, यथार्थ है, यावत् जिस प्रकार आपने कहा है, उसी प्रकार है । यों कहकर आगे विशेषरूप से कहने लगे- हे देवानुप्रिय ! अभीचि कुमार का राज्याभिषेक करके उसे राज पर बिठाढूँ, तब मैं आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित हो जाएं। हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो, (वैसा करो), विलम्ब मत करो। श्रमण भगवान महावीर द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उदयन राजा हृष्ट-तुष्ट एवं आनन्दित हुए । उदायन नरेश ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया
और फिर उसी अभिषेक-योग्य पट्टहस्ती पर आरूढ़ होकर श्रमण भगवान महावीर के पास से, मृगवान् उद्यान से नीकले और वीतिभय नगर जाने के लिए प्रस्थान किया।
तत्पश्चात् उदायन राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हआ- वास्तव में अभीचि कुमार मेरा एक ही पुत्र है, वह मुझे अत्यन्त इष्ट एवं प्रिय है; यावत् उसका नाम-श्रवण भी दुर्लभ है तो फिर उनके दर्शन दुर्लभ हों, इसमें तो कहना ही क्या ? अतः यदि मैं अभीचि कुमार को राजसिंहासन पर बिठाकर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित हो जाऊं तो अभीचि कुमार राज्य और राष्ट्र में, यावत् जनपद में और मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित एवं अत्यधिक तल्लीन होकर अनादि, अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गति-रूप संसारअटवी में परिभ्रमण करेगा । अतः मेरे लिए अभीचि कुमार को राज्यारूढ कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होना श्रेयस्कर नहीं है । अपितु मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं अपने भानजे केशी कुमार को राज्यारूढ़ करके श्रमण भगवान महावीर के पास यावत् प्रव्रजित हो जाऊं | उदायन नृप इस प्रकार अन्तर्मन्थन करता हुआ वीतिभय नगर के निकट आया । वीतिभय नगर के मध्य में होता हुआ अपने राजभवन के बाहर की उपस्थानशाला में आया और अभिषेक योग्य पट्टहस्ती को खड़ा किया । फिर उस पर से नीचे ऊतरा । तत्पश्चात् वह राजसभा में सिंहासन के पास आया और पूर्वदिशा की ओर मुख करके उक्त सिंहासन पर बैठा । तदनन्तर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें इस प्रकार का आदेश दिया-देवानप्रियो ! वीतिभय नगर को भीतर
और बाहर से शीघ्र ही स्वच्छ करवाओ, यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने नगर की भीतर और बाहर से सफाई करवा कर यावत् उनके आदेश-पालन का निवेदन किया।
तदनन्तर उदायन राजा ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार की आज्ञा दीदेवानुप्रियो ! केशी कुमार के महार्थक, महामूल्य, महान् जनों के योग्य यावत् राज्याभिषेक की तैयारी करो। इसका समग्र वर्णन शिवभद्र कुमार के राज्याभिषेक के समान यावत्-परम दीर्घायु हो, इष्टजनों से परिवृत्त होकर सिन्धुसौवीर-प्रमुख सोलह जनपदों, वीतिभय-प्रमुख तीन सौ तिरेसठ नगरों और आकरों तथा मुकुटबद्ध महासेनप्रमुख दस राजाओं एवं अन्य अनेक राजाओं, श्रेष्ठियों, कोतवाल आदि पर आधिपत्य करते तथा राज्य का परि-पालन करते हुए विचरो, यों कहकर जय-जय शब्द का प्रयोग किया । इसके पश्चात् केशी कुमार राजा बना । वह महाहिमवान् पर्वत के समान इत्यादि वर्णन युक्त यावत् विचरण करता है।
तदनन्तर उदायन राजा ने केशी राजा से दीक्षा ग्रहण करने के विषय में अनुमति प्राप्त की। तब केशी राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और जमाली कुमार के समान नगर को भीतर-बाहर से स्वच्छ कराया और उसी प्रकार यावत् निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी करने में लगा दिया । फिर केशी राजा ने अनेक गणनायकों आदि से यावत् परिवृत्त होकर, उदायन राजा को उत्तम सिंहासन पर पूर्वाभिमुख आसीन किया और एक सौ आठ स्वर्ण-कलशों से उनका अभिषेक किया, इत्यादि सब वर्णन जमाली के समान कहना चाहिए, यावत् केशी राजा ने इस प्रकार कहाकहिए, स्वामिन् ! हम आपको क्या दें, क्या अर्पण करें, आपका क्या प्रयोजन है ?' इस पर उदायन राजा ने केशी राजा से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! कुत्रिकापण से हमारे लिए रजोहरण और पात्र मंगवाओ । इत्यादि, विशेषता
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 42