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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र- ५८६
भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर क्या उस चमरचंच आवास में निवास करके रहता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! फिर किस कारण से चमरेन्द्र का आवास चमरचंच आवास कहलाता है ? गौतम ! यहाँ मनुष्यलोक में औपकारिक लयन, उद्यान में बनाये हुए घर, नगर-प्रदेश-गृह, अथवा नगर-निर्गम गृह- जिसमें पानी के फव्वारे लगे हों, ऐसे घर होते हैं, वहाँ बहुत-से मनुष्य एवं स्त्रियाँ आदि बैठते हैं, इत्यादि वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र अनुसार, यावत्-कल्याणरूप फल और वृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए वहाँ विहरण करते हैं, किन्तु उनका निवास अन्यत्र होता है। वैसे हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर का चमरचंच नामक आवास केवल क्रीड़ा और रति के लिए है, वह अन्यत्र निवास करता है । इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि चमरेन्द्र चमरचंच नामक आवास में निवास नहीं करता । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। सूत्र-५८७
तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर किसी अन्य दिन राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से यावत् विहार कर देते हैं । उस काल, उस समय में चम्पा नगरी थी । पूर्णभद्र नामका चैत्य था । किसी दिन श्रमण भगवान महावीर पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए यावत् विहार करते हुए जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे यावत् विचरण करने लगे । उस काल, उस समय सिन्धु-सौवीर जनपदों में वीतिभय नगर था । उस के बाहर ईशानकोण में मृगवन नामक उद्यान था । वह सभी ऋतुओं के पुष्प आदि से समृद्ध था, इत्यादि । उस वीतिभय नगर में उदायन राजा था । वह महान् हिमवान् पर्वत के समान था । उस उदायन राजा की प्रभावती नाम की देवी (पटरानी) थी। वह सुकुमाल थी, इत्यादि वर्णन यावत्-विचरण करती थी, उस उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज अभीचि कुमार था । वह सुकुमाल था । उसका शेष वर्णन शिवभद्र के समान यावत् वह राज्य का निरीक्षण करता हुआ रहता था, (यहाँ तक) जानना । उस उदायन राजा का अपना भानजा केशी कुमार था । वह भी सुकुमाल यावत् सुरूप था । वह उदायन राजा सिन्धुसौवीर आदि सोलह जनपदों का, वीतिभय-प्रमुख तीन सौ श्रेष्ठ नगरों और आकरों का स्वामी था । जिन्हें छत्र, चामर और बाल-व्यंजन (पंखे) दिये गए थे, ऐसे महासेन-प्रमुख दस मुकुटबद्ध राजा तथा अन्य बहुत-से राजा, ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्ति, तलवर, यावत् सार्थवाह-प्रभृति जनों पर आधिपत्य करता हुआ तथा राज्य का पालन करता हुआ यावत् विचरता था । वह जीव-अजीवआदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् श्रमणोपासक था
एक दिन वह उदायन राजा जहाँ (अपनी) पौषधशाला थी, वहाँ आए और शंख श्रमणोपासक के समान पौषध करके यावत् विचरने लगे । पूर्वरात्रि व्यतीत हो जाने पर पिछली रात्रि के समय में धर्मजागरिकापूर्वक जागरण करते हुए उदायन राजा को अध्यवसाय उत्पन्न हुआ धन्य है वे ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संवाह एवं सन्निवेश; जहाँ श्रमण भगवन् महावीर विचरण करते हैं ! धन्य हैं वे राजा, श्रेष्ठी, तलवर यावत् सार्थवाह-प्रभृति जन, जो श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, यावत् उनकी पर्युपासना करते हैं । यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम यावत् विहार करते हुए यहाँ पधारें, यहाँ उनका समवसरण हो और यहीं वीतिभय नगर के बाहर मृगवन नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरण करें, तो मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करूँ, यावत् उनकी पर्युपासना करूँ । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी, उदायन राजा के इस प्रकार के समुत्पन्न हुए अध्यवसाय यावत् संकल्प को जानकर चम्पा नगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य से नीकले और क्रमशः विचरण करते हुए, ग्रामानुग्राम यावत् विहार करते हुए जहाँ सिन्धु-सौवीर जनपद था, जहाँ वीतिभय नगर था और उसमें मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ पधारे यावत् विचरने लगे। वीतिभय नगर में शृंगाटक आदि मार्गों में (भगवान के पधारने की चर्चा होने लगी) यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी।
उस समय बात को सुनकर उदायन राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा- देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही वीतिभय नगर को भीतर और बाहर से स्वच्छ करवाओ, इत्यादि कूणिक का
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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