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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक कथंचित् आत्मा और नो आत्माएं तथा आत्मा-नो आत्मा उभयरूप होने से-कथंचित् अवक्तव्य है और कथंचित् आत्माएं, नो-आत्मा, तथा आत्मा-नो आत्मा उभयरूप होने से (कथंचित्) अवक्तव्य हैं। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? गौतम ! अपने आदेश से सद्रूप है, पर के आदेश से नो आत्मा है; तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है । एक देश के आदेश से सद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से चार भंग होते हैं । सद्भावपर्याय और तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चार भंग होत हैं। असद्भावपर्याय और तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चार भंग होते हैं । एक देश के आदेश से सद्भावपर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भावपर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के आदेश से तदुभय-पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, आत्मा, नो-आत्मा और आत्मा-नो-आत्मा-उभयरूप होने से अवक्तव्य है । एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असदभावपर्याय की अपेक्षा से और बहत देशों के आदेश से तदभय-पर्याय की अपेक्षा से चतष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा नो आत्मा, और आत्माएं-नो-आत्माएं इस उभयरूप से अवक्तव्य है । एक देश के आदेश से सद् भावपर्याय की अपेक्षा से बहुत देशों के आदेश से असद्भाव-पर्यायों की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा, नो-आत्माएं और आत्मा-नो आत्मा उभयरूप से अवक्तव्य है। बहुत देशों के आदेश से सद्भाव-पर्यायों की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भावपर्याय की अपेक्षा से तथा एक देश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्माएं नो आत्मा और आत्मा-नो आत्मा उभयरूप से अवक्तव्य है । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् आत्मा है, कथंचित् नो-आत्मा है और कथंचित् अवक्तव्य है।
भगवन् ! पंचप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, अथवा अन्य है ? गौतम ! पंचप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् आत्मा है, कथंचित् नो आत्मा है, आत्मा-नो-आत्मा उभयरूप होने से कथंचित् अवक्तव्य है । कथंचित् आत्मा और नो आत्मा कथंचित् आत्मा और अवक्तव्य (कथंचित्) नो आत्मा और अवक्तव्य तथा त्रिकसंयोगी आठ भंगों में एक भंग घटित नहीं होता, अर्थात् सात भंग होते हैं । कुल मिलाकर बाईस भंग होते हैं । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया है ? गौतम ! पंचप्रदेशी स्कन्ध, अपने आदेश से आत्मा है; पर के आदेश से नो-आत्मा है, तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है । एक देश के आदेश से, सद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से तथा एक देश के आदेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से कथंचित् आत्मा है, कथंचित् नो-आत्मा है । इसी प्रकार द्विकसंयोगी सभी (बारह) भंग बनते हैं । त्रिकसंयोगी (आठ भंग होते हैं, उनमें से एक आठवाँ भंग नहीं बनता) | षट्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में ये सभी भंग बनते हैं । षट्प्रदेशी स्कन्ध के समान यावत् अनन्तप्रदेश स्कन्ध तक कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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