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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक वीर्यात्मा अवश्य होती है, किन्तु जिसके वीर्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा भजना से होत है।
भगवन् ! द्रव्यात्मा, कषायात्मा यावत् वीर्यात्मा-इनमें से कौन-सी आत्मा, किससे अल्प, बहुत, यावत् विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ी चारित्रात्माएं हैं, उनसे ज्ञानात्माएं अनन्तगुणी हैं, उनसे कषायात्माएं अनन्तगुणी हैं, उनसे योगात्माएं विशेषाधिक हैं, उनसे वीर्यात्माएं विशेषाधिक हैं, उनसे उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा, ये तीनों विशेषाधिक हैं और तीनों तुल्य हैं। सूत्र - ५६१
भगवन् ! आत्मा ज्ञानस्वरूप है या अज्ञानस्वरूप है ? गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है, कदाचित् अज्ञानरूप है। (किन्तु) ज्ञान तो नियम से आत्मस्वरूप है।
न ! नैरयिकों की आत्मा ज्ञानरूप है अथवा अज्ञानरूप है ? गौतम ! कथञ्चित ज्ञानरूप है और कथञ्चित् अज्ञानरूप है। किन्तु उनका ज्ञान नियमतः आत्मरूप है । इसी प्रकार स्तनितकुमार तक कहना चाहिए।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा क्या अज्ञानरूप है ? क्या पृथ्वीकायिकों का अज्ञान अन्य है ? गौतम पृथ्वीकायिकों की आत्मा नियम से अज्ञानरूप है, परन्तु उनका अज्ञान अवश्य ही आत्मरूप है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना । द्वीन्द्रिय आदि से यावत् वैमानिक जीवों का कथन नैरयिकों के समान जानना।
भगवन् ! आत्मा दर्शनरूप है, या दर्शन उससे भिन्न है ? गौतम ! आत्मा अवश्य दर्शनरूप है और दर्शन भी नियमतः आत्मरूप है । भगवन् ! नैरयिकों की आत्मा दर्शनरूप है, अथवा नैरयिक जीवों का दर्शन उनसे भिन्न है ? गौतम ! नैरयिक जीवों की आत्मा नियमतः दर्शनरूप है, उनका दर्शन भी नियमतः आत्मरूप है । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक चौबीस ही दण्डकों के विषय में (कहना चाहिए)। सूत्र-५६२
भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी आत्मरूप है या वह अन्यरूप है ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् आत्मरूप है और कथंचित् नोआत्मरूप है तथा कथंचित् अवक्तव्य है । भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी अपने स्वरूप से व्यपदिष्ट होने पर आत्मरूप हैं, पररूप से आदिष्ट होने पर नो-आत्मरूप है और उभयरूप की विवक्षा से कथन करने पर सद्-असद्रूप होने से अवक्तव्य है। इसी कारण से हे गौतम ! यावत् उसे अवक्तव्य कहा गया है । भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी आत्मरूप है ? इत्यादि प्रश्न । रत्नप्रभापृथ्वी के समान ही शर्कराप्रभा के विषय में भी कहना । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना।
भगवन ! सौधर्मकल्प आत्मरूप है ? इत्यादि प्रश्न है । गौतम ! सौधर्मकल्प कथंचित आत्मरूप है, कथंचित नो-आत्मरूप है तथा कथंचित् आत्मरूप-नो-आत्मरूप होने से अवक्तव्य हैं। भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है ? गौतम ! स्व-स्वरूप की दृष्टि से कथन किये जाने पर आत्मरूप है, पर-रूप की दृष्टि से कहे जान पर नो-आत्मरूप है
और उभयरूप की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसी कारण उपर्युक्त रूप से कहा गया है । इसी प्रकार अच्युतकल्प तक जानना चाहिए । भगवन् ! ग्रैवेयकविमान आत्मरूप है ? अथवा वह उससे भिन्न (नो-आत्मरूप) है ? गौतम ! इसका कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान करना चाहिए । इसी प्रकार अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए । इसी प्रकार ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक कहना चाहिए।
भगवन् ! परमाणु-पुद्गल आत्मरूप अथवा वह अन्य है ? (गौतम !) सौधर्मकल्प के अनुसार परमाणुपुदगल के विषय में कहना चाहिए।
भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध आत्मरूप है, (अथवा) वह अन्य है ? गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् सद्रूप है, कथंचित् असद्रूप है, और सद्-असद्रूप होने से कथंचित् अवक्तव्य है । कथंचित् सद्रूप है और कथंचित् असद्रूप है, कथंचित् स्वरूप है और सद्-असद्-उभयरूप होने से अवक्तव्य है और कथंचित् असद्रूप है
और सद्-असद्-उभयरूप होने से अवक्तव्य है । भगवन् ! किस कारण से यावत् कथंचित असद्रूप है और सद्असद् उभयरूप होने से अवक्तव्य है ? गौतम ! (द्विप्रदेशी स्कन्ध) अपने स्वरूप की अपेक्षा से कथन किये जाने पर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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