________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक शतक-३६
शतकशतक-१ - उद्देशक-१ सूत्र-१०५८
भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनका उपपात व्युत्क्रान्तिपद अनुसार जानना । परिमाण-एक समय में सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इनका अपहार उत्पलोद्देशक अनुसार जानना । इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की है । एकेन्द्रियमहायुग्मराशि के प्रथम उद्देशक के समान समझना । विशेष यह है कि इनमें तीन लेश्याएं होती हैं। देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते । सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं । ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं । वे वचनयोगी और काययोगी होते हैं।
भगवन् ! वे कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यातकाल । उनकी स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है । वे नियमतः छह दिशा का आहार लेते हैं । तीन समुद्घात होते हैं । शेष पूर्ववत् यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों के सोलह महायुग्मों में कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक-३६/१ - उद्देशक-२ से ११ सूत्र-१०५९
भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम! एकेन्द्रियमहायुग्मों के प्रथमसमय-सम्बन्धी उद्देशक अनुसार जानना । यहाँ दस बातों का जो अन्तर बताया है, वही अन्तर समझना । ग्यारहवीं विशेषता यह है कि ये सिर्फ काययोगी होते हैं । शेष सब बातें एकेन्द्रियमहा-युग्मों के प्रथम उद्देशक के समान जानना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
एकेन्द्रियमहायुग्म-सम्बन्धी ग्यारह उद्देशकों के समान यहाँ भी कहना चाहिए । किन्तु यहाँ चौथे, (छठे) आठवें और दसवें उद्देशकों में सम्यक्त्व और ज्ञान का कथन नहीं होता । एकेन्द्रिय के समान प्रथम, तृतीय और पंचम, उद्देशकों के एकसरीखे पाठ हैं, शेष आठ उद्देशक एक समान हैं।
शतक-३६- शतकशतक-२ से १२ सूत्र-१०६०
भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् जानना । कृष्णलेश्यी जीवों का भी शतक ग्यारह उद्देशक-युक्त जानना चाहिए । विशेष यह है कि इनकी लेश्या और कायस्थति तथा भवस्थिति कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के समान होती है। इसी प्रकार नीललेश्यी और कापोतलेश्यी द्वीन्द्रिय जीवों का ग्यारह उद्देशक-सहित शतक है।
भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम! पूर्ववत् भवसिद्धिक महायुग्मद्वीन्द्रिय जीवों के चार शतक जानने चाहिए । विशेष यह है कि-सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए ? यह बात शक्य नहीं है । शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए । ये चार औधिकशतक हुए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है | जिस प्रकार भवसिद्धिक के चार शतक कहे, उसी प्रकार अभवसिद्धिक के भी चार शतक कहने चाहिए । विशेष यह है कि इन सबमें सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होते हैं । शेष सब पूर्ववत् ही है । इस प्रकार ये बारह द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक होते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है |
शतक-३६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 244