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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक शतक-३४/१ - उद्देशक-४ से ११ सूत्र-१०३७
इसी प्रकार शेष आठ उद्देशक भी यावत् अचरम तक जानने चाहिए । विशेष यह है कि अनन्तर-उद्देशक अनन्तर के समान और परम्पर-उद्देशक परम्पर के समान कहना चाहिए । चरम और अचरम भी इसी प्रकार हैं। इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हुए।
शतक-३४-शतकशतक-२ सूत्र-१०३८
भगवन् ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार | उनके चार-चार भेद एकेन्द्रियशतक के अनुसार वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना।
- भगवन् ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व-चरमान्त में यावत् उत्पन्न होता है ? गौतम ! औधिक उद्देशक के अनुसार लोक के चरमान्त तक सर्वत्र कृष्णलेश्या वालों में उपपात कहना।
भगवन् ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! औधिक उद्देशक के इस अभिलाप के अनुसार तुल्यस्थिति वाले पर्यन्त कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। इस प्रकारप्रथम श्रेणी शतक समान ग्यारह उद्देशक कहना।
शतक-३४ - शतकशतक-३ से ५ सूत्र-१०३९-१०४१
इसी प्रकार नीललेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव का तृतीय शतक है । कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय के लिए भी इसी प्रकार चतुर्थ शतक है । तथा भवसिद्धिक-एकेन्द्रिय विषयक पंचम शतक भी समझना चाहिए।
शतक-३४-शतकशतक-६ सूत्र-१०४२
भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! औधिक उद्देशकानुसार जानना । भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक भवसिद्धिक-कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! औधिक उद्देशक के अनुसार जानना।
भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के हैं । यहाँ प्रत्येक के चार-चार भेद वनस्पतिकायिक पर्यन्त समझने चाहिए । भगवन् ! जो परम्परोपपन्नक-कृष्णलेश्यीभवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वी-चरमान्त में यावत् उत्पन्न होता है ? गौतम! पूर्ववत् जानना । इस अविलाप से औधिक उद्देशक के अनुसार लोक के चरमान्त तक यहाँ सर्वत्र कृष्ण-लेश्यी भवसिद्धिक में उपपात कहना।
भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यीभवसिद्धिक पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं? गौतम ! इसी प्रकार इस अभिलाप से औधिक उद्देशक यावत् तुल्यस्थिति-पर्यन्त जानना । इसी प्रकार इस अभिलाप से कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए।
शतक-३४ - शतकशतक-७ से १२ सूत्र-१०४३
नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का (सातवाँ) शतक कहना । इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव का (आठवाँ) शतक कहना । भवसिद्धिक जीव के चार शतकों के अनुसार अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव के भी चार शतक कहने चाहिए । विशेष यह है कि चरम और अचरम को छोड़कर इनमें नौ उद्देशक ही कहना । इस प्रकार ये बारह एकेन्द्रिय-श्रेणी-शतक कहे हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-३४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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