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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक विमात्रा स्थिति वाले तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो विषम आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले, विमात्रा-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं । इस कारण से यह कहा गया है कि यावत् विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-३४/१ - उद्देशक-२ सूत्र-१०३५
भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । फिर प्रत्येक के दो-दो भेद एकेन्द्रिय शतक के अनुसार वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना।
भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! वे स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वीयों में हैं, यथा-रत्नप्रभा इत्यादि । स्थानपद के अनुसार-यावत् द्वीपों में तथा समुद्रों में अनन्तरो-पपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहे हैं । उपपात और समुद्घात की अपेक्षा वे समस्त लोक में हैं । स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं । अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक सभी जीव एक प्रकार के हैं तथा विशेषता और भिन्नता रहित हैं तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त हैं । इसी क्रम से सभी एकेन्द्रियसम्बन्धी कथन करना । उन सभी के स्वस्थान स्थानपद के अनुसार हैं । इन पर्याप्त बादर एके-न्द्रिय जीवों के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव के भी उपपातादि जानने चाहिए तथा सूक्ष्म पथ्वीकायिक जीवों के उपपात. समदघात और स्वस्थान के अनुसार सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव यावत वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना।
भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ हैं ? गौतम ! आठ हैं, इत्यादि एकेन्द्रियशतक में उक्त अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के समान उसी प्रकार बाँधते हैं और वेदते हैं, यहाँ तक इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए। भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! औधिक उद्देशक अनुसार कहना । भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? गौतम ! दो, यथा-वेदना समुद्घात और कषायसमुद्घात ।।
भगवन् ! क्या तुल्यस्थिति वाले अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव परस्पर तुल्य, विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! कईं तुल्यस्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और कई तुल्यस्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे हैं, यथा कईं जीव समान आयु और समान उत्पत्ति वाले होते हैं, जबकि कईं जीव समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं । इनमें से जो समान आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्यस्थिति वाले परस्पर तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं । इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि...यावत् विमात्रविशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-३४/१ - उद्देशक-३ सूत्र-१०३६
भगवन् ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के, यथा-पृथ्वीकायिक इत्यादि । उनके चार-चार भेद वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना । भगवन् ! परम्परोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व-चरमान्त में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के यावत् पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम ! इस अभिलाप से प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् लोक के चरमान्त पर्यन्त कहना ।
भगवन् ! परम्परोपपन्नक पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा वे आठ पृथ्वीयों में हैं । इस प्रकार प्रथम उद्देशकमें उक्त कथनानुसार तुल्य-स्थिति तक कहना चाहिए । भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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