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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक शतक-२९
उद्देशक-१ सूत्र - ९९५
भगवन् ! जीव पापकर्म का वेदन एकसाथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं ? अथवा एक साथ प्रारम्भ करते हैं और भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं? या भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं ? अथवा भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं? गौतम ! कितने ही जीव (पापकर्मवेदन) एक साथ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं यावत् कितने ही जीव विभिन्न समय में प्रारम्भ करते और विभिन्न समय में समाप्त करते हैं। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा कि कितने ही जीव ? गौतम ! जीव चार प्रकार के कहे हैं । यथा-कईं जीव समान आयु वाले हैं और समान उत्पन्न होते हैं, कईं जीव समान आयु वाले हैं, किन्तु विषम समय में उत्पन्न होते हैं, कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और सम उत्पन्न होते हैं और कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और विषम समय में उत्पन्न होते हैं । इनमें से जो समान आयु वाले और समान उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं, जो समान आयु वाले हैं, किन्तु विषम समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं किन्तु भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं, जो विषम आयु वाले हैं और समान समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का भोग भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं
और एक साथ अन्त करते हैं और जो विषय आयु वाले हैं और विषम समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन भी भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और अन्त भी विभिन्न समय में करते हैं. इस कारण से हे गौतम ! पर्वोक्त प्रकार का कथन किया है।
भगवन् ! सलेश्यी जीव पापकर्म का वेदन एक काल में करते हैं ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! पूर्ववत् समझना। इसी प्रकार सभी स्थानों में अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जानना । इन सभी पदों में यही वक्तव्यता कहना । भगवन् ! क्या नैरयिक पापकर्म भोगने का प्रारम्भ एक साथ करते हैं और उसका अन्त भी एक साथ करते हैं ? गौतम ! (पूर्वोक्त चतुर्भंगी का) कथन सामान्य जीवों के समान अनाकारोपयुक्त तक नैरयिकों के सम्बन्ध में जानना । इसी प्रकार वैमानिकों तक जिसमें जो बोल हों, उन्हें इसी क्रम से कहना चाहिए।
पापकर्म के दण्डक समान इसी क्रम से सामान्य जीव से लेकर वैमानिकों तक आठों कर्म-प्रकृतियों के सम्बन्ध में आठ दण्डक कहने चाहिए । इस रीति से नौ दण्डकसहित यह प्रथम उद्देशक कहना चाहिए। हे भगवन् यह इसी प्रकार है।
शतक-२९ - उद्देशक-२ सूत्र-९९६
भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक एक काल में पापकर्म वेदन करते हैं तथा एक साथ ही उसका अन्त करते हैं ? गौतम ! कईं पापकर्म को एक साथ भोगते हैं ? एक साथ अन्त करते हैं तथा कितने ही एक साथ पापकर्म को भोगते हैं, किन्तु उसका अन्त विभिन्न समय में करते हैं। भगवन ! ऐसा क्यों कहते हैं कि कईं...एक साथ भोगते हैं? इत्यादि प्रश्न | गौतम ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक दो प्रकार के हैं । यथा-कईं समकाल के आयुष्य वाले और समकाल में ही उत्पन्न होते हैं तथा कतिपय समकाल के आयुष्य वाले, किन्तु पृथक्-पृथक् काल के उत्पन्न हुए होते हैं। उनमें से जो समकाल के आयुष्य वाले होते हैं तथा एक साथ उत्पन्न होते हैं, वे एक काल में पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ करते हैं तथा उसका अन्त भी एक काल में करते हैं? जो समकाल के आयुष्य वाले होते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ तो एक साथ करते हैं, किन्तु उसका अन्त पृथक्-पृथक् काल में करते हैं, इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है।
भगवन् ! क्या लेश्या वाले अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक काल में करते हैं? गौतम ! पूर्ववत् समझना । इसी प्रकार अनाकारोपयुक्त तक समझना । असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक भी इसी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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