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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र- ५४९
भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? गौतम ! दशवें शतक अनुसार राजधानी में सिंहासन पर मैथुन-निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है, यहाँ तक कहना । सूर्य के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना । भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र और सूर्य किस प्रकार के काम-भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! जिस प्रकार प्रथम यौवन वय में किसी बलिष्ठ पुरुष ने, किसी यौवनअवस्था में प्रविष्ट होती हुई किसी बलिष्ठ भार्या के साथ नया ही विवाह किया, और अर्थोपार्जन करने की खोज में सोलह वर्ष तक विदेश में रहा । वहाँ से धन प्राप्त करके अपना कार्य सम्पन्न कर वह निर्विघ्नरूप से पुनः लौटकर शीघ्र अपने घर आया । वहाँ उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक और मंगलरूप प्रायश्चित्त किया । तत्पश्चात् सभी आभूषणों से विभूषित होकर मनोज्ञ स्थालीपाक-विशुद्ध अठारह प्रकार के व्यंजनों से युक्त भोजन करे । फिर महाबल के प्रकरण में वर्णित वासगृह के समान शयनगृह में शृंगारगृहरूप सुन्दर वेष वाली, यावत् ललितकलायुक्त, अनुरक्त, अत्यन्त रागयुक्त और मनोऽनुकूल पत्नी के साथ वह इष्ट शब्द रूप, यावत् स्पर्श (आदि), पाँच प्रकार के मनुष्य-सम्बन्धी कामभोग का उपभोग करता हआ विचरता है।
हे गौतम ! वह पुरुष वेदोपशमन के समय किस प्रकार के साता-सौख्य का अनुभव करता है ? आयुष्यमन् श्रमण भगवन् ! वह पुरुष उदार (सुख का अनुभव करता है) । हे गौतम ! उस पुरुष के इन कामभोगों से वाणव्यन्तरदेवों के कामभोग अनन्तगुण-विशिष्टतर होते हैं । उनसे असुरेन्द्र के सिवाय शेष भवनवासी देवों के कामभोग अनन्तगुण-विशिष्टतर होते हैं । उनसे असुरकुमार देवों के कामभोग अनन्तगुण-विशिष्टतर होते हैं । उनसे ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देवों के कामभोग अनन्तगुण-विशिष्टतर होते हैं । उनसे ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्रमा और सूर्य के कामभोग अनन्तगुण विशिष्टतर होते हैं । हे गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योति-ष्कराज चन्द्रमा और सूर्य इस प्रकार के कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है
शतक-१२ - उद्देशक-७ सूत्र-५५०
उस काल और उस समय में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न किया-भगवन् ! लोक कितना बड़ा है ? गौतम ! लोक महातिमहान है । पूर्वदिशा में असंख्येय कोटा-कोटि योजन है । इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर एवं ऊर्ध्व तथा अधोदिशा में भी असंख्येय कोटा-कोटि योजन-आयाम-विष्कम्भ वाला है।
भगवन् ! इतने बड़े लोक में क्या कोई परमाणु-पुद्गल जितना भी आकाशप्रदेश ऐसा है, जहाँ पर इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष सौ बकरियों के लिए एक बड़ा बकरियों का बाड़ा बनाए । उसमें वह एक, दो या तीन और अधिक से अधिक एक हजार बकरियों को रखे । वहाँ उनके लिए घास-चारा चरने की प्रचूर भूमि और प्रचूर पानी हो । यदि वे बकरियाँ वहाँ कम से कम एक, दो या तीन दिन और अधिक से अधिक छह महीने तक रहे, तो हे गौतम ! क्या उस अजाव्रज का कोई भी परमाणु-पुद्गलमात्र प्रदेश ऐसा रह सकता है, जो उन बकरियों के मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक के मैल, वमन, पित्त, शुक्र, रुधिर, चर्म, रोम, सींग, खुर और नखों से अस्पृष्ट न रहा हो ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे गौतम
दाचित उस बाडे में कोई एक परमाण-पदगलमात्र प्रदेश ऐसा भी रह सकता है, जो उन बकरियों के मल-मत्र यावत नखों से स्पृष्ट न हआ हो, किन्तु इतने बड़े इस लोक में, लोक के शाश्वतभाव की दृष्टि से, संसार के अनादि होने के कारण, जीव की नित्यता, कर्मबहुलता तथा जन्म-मरण की बहुलता की अपेक्षा से कोई परमाणु-पुद्गल-मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो । हे गौतम ! इसी कारण उपर्युक्त कथन किया गया है कि यावत् जन्म-मरण न किया हो। सूत्र-५५१
भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात हैं । प्रथम शतक के पञ्चम उद्देशक अनुसार (यहाँ भी) नरकादि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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