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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-९१४
भगवन् ! पुलाक के संयमस्थान कितने कहे हैं ? गौतम ! असंख्यात हैं । इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक कहना । भगवन् ! निर्ग्रन्थ के संयमस्थान ? गौतम ! एक ही अजघन्य-अनुत्कृष्ट संयमस्थान है। इसी प्रकार स्नातक के विषय में समझना।
भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, इनके संयमस्थानों में अल्पबहत्व क्या है ? गौतम ! निर्ग्रन्थ और स्नातक का संयमस्थान अजघन्य-अनुत्कृष्ट एक ही है और सबसे अल्प है। इनसे पुलाक के संयमस्थान असंख्यातगुणा है । उनसे बकुश के संयमस्थान असंख्यातगुणा है, उनसे प्रतिसेवनाकुशील के संयमस्थान असंख्यातगुणा है और उनसे कषायकुशील के संयमस्थान असंख्यातगुणा हैं। सूत्र-९१५
भगवन् ! पुलाक के चारित्र-पर्यव कितने होते हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । इसी प्रकार स्नातक तक कहना चाहिए
भगवन् ! एक पुलाक, दूसरे पुलाक के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? गौतम ! वह कदाचित् हीन होता है, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है । यदि हीन हो तो अनन्त-भागहीन, असंख्यातभागहीन तथा संख्यातभागहीन होता है एवं संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्त-गुणहीन होता है । यदि अधिक हो तो अनन्तभाग-अधिक संख्यातभाग-अधिक और संख्यातभाग-अधिक होता है; तथैव संख्यातगुण-अधिक, असंख्यातगुण-अधिक और अनन्तगुण-अधिक होता है। भगवन् ! पुलाक अपने चारित्र-पर्यायों से, बकुश से परस्थान-सन्निकर्ष की अपेक्षा हीन हैं, तुल्य हैं या अधिक हैं ? गौतम ! वे अनन्तगुणहीन होते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील में कहना । कषायकुशील से पुलाक के स्वस्थान के समान षट्स्थानपतित कहना चाहिए। बकुश के समान निर्ग्रन्थ के भी कहना । स्नातक का कथन भी बकुश के समान है।
भगवन् ! बकुश, पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों की अपेक्षा हीन है, तुल्य है या अधिक है? गौतम ! वह हीन भी नहीं और तुल्य भी नहीं; किन्तु अधिक है; अनन्तगुण अधिक है । भगवन् ! बकुश, दूसरे बकुश के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्रपर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? गौतम ! वह कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है । यदि हीन हो तो षट्स्थान-पतित होता है । भगवन् ! बकुश, प्रति-सेवनाकुशील के परस्थान-सन्निकर्ष से. चारित्र-पर्यायों से हीन है. तल्य है या अधिक है ? गौतम ! वह षटस्थान-पतित होता है। इसी प्रकार कषायकशील भी समझना । भगवन ! बकश निर्ग्रन्थ के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तल्य या अधिक होते हैं ? गौतम ! वे अनन्तगुण-हीन होते हैं । इसी प्रकार स्नातक भी जानना । प्रतिसवनाकुशाल भा बकुश समान जानना । कषायकुशील भी बकुश समान है । विशेष यह है कि पुलाक के साथ षट्कस्थानपतित कहना।
भगवन् ! निर्ग्रन्थ, पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से, चारित्रपर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? गौतम! वह अनन्तगुण-अधिक है । इसी प्रकार यावत् कषायकुशील की अपेक्षा से भी जानना । भगवन् ! एक निर्ग्रन्थ, दूसरे निर्ग्रन्थ के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन है या अधिक हैं ? गौतम ! वह तुल्य होता है । इसी प्रकार स्नातक के साथ भी जानना । भगवन् ! स्नातक पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य अथवा अधिक है ? गौतम ! निर्ग्रन्थ के समान जानना । भगवन् ! एक स्नातक दूसरे स्नातक के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्रपर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक है ? गौतम ! वह तुल्य है।
भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, इनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्र-पर्यायों में अल्प बहुत्व क्या है ? गौतम ! पुलाक और कषायकुशील इन दोनों के जघन्य चारित्र-पर्याय परस्पर तुल्य हैं और सबसे अल्प हैं । उनसे पुलाक के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण । उनसे बकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन दोनों के जघन्य चारित्र-पर्याय परस्पर तुल्य हैं और अनन्तगुणे । उनसे बकुश के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुणे । उनसे प्रतिसेवनाकुशीलके उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण । उनसे कषायकुशील के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण और उनसे निर्ग्रन्थ और स्नातक, इन दोनों के अजघन्य-अनुत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण हैं और परस्पर तुल्य हैं ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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