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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-८६५
भगवन् ! योग कितने प्रकार का है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार का । यथा-सत्य-मनोयोग, मृषा-मनोयोग, सत्यमृषा-मनोयोग, असत्यामृषा-मनोयोग, सत्य-वचनयोग, मृषा-वचनयोग, सत्यमृषा-वचनयोग, असत्यामृषावचनयोग, औदारिकशरीर-काययोग, औदारिक-मिश्रशरीर-काययोग, वैक्रियशरीर-काययोग, वैक्रियमिश्र-शरीरकाययोग, आहारकशरीर-काययोग, आहारकमिश्रशरीर-काययोग और कार्मण-शरीर-काययोग।
भगवन् ! इन पन्द्रह प्रकार के योगों में, कौन किस योग से जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! कार्मणशरीर का जघन्य काययोग सबसे अल्प है. उससे औदारिकमिश्र असंख्यातगुणा है, उससे वैक्रियमिश्र का जघन्य योग असंख्यातगुणा है, उससे औदारिकशरीर का जघन्य योग असंख्यातगणा है, उससे वैक्रियशरीर का जघन्य योग असंख्यातगणा है, उससे कार्मणशरीर का उत्कष्ट योग असंख्यातगुणा है, उससे आहारिकमिश्र का जघन्य योग असंख्यातगुणा है, उससे आहारिकशरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है, उससे औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र इन दोनों का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है, और दोनों परस्पर तुल्य हैं । उससे असत्यामृषामनोयोग का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । आहारकशरीर का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । उससे तीन प्रकार का मनोयोग और चार प्रकार का वचनयोग, इन सातों का जघन्य योग असंख्यातगुणा है और परस्पर तुल्य है। उससे आहारकशरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है, उससे औदारिकशरीर, वैक्रियशरीर, चार प्रकार का मनोयोग और चार प्रकार का वचनयोग, इन दस का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है और परस्पर तुल्य है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-२५- उद्देशक-२ सूत्र-८६६
भगवन ! द्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! दो प्रकार के जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य ।
भगवन् ! अजीवद्रव्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के-रूपी और अरूपी अजीवद्रव्य । इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के पाँचवे पद में कथिन अजीवपर्यवों के अनुसार, यावत्-हे गौतम ! इस कारण से कहा जाता है कि, अजीवद्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं, तक जानना। सूत्र - ८६७
भगवन् ! क्या जीवद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? गौतम ! जीवद्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं । गौतम ! नैरयिक असंख्यात हैं, यावत् वायुकायिक असंख्यात हैं और वनस्पतिकायिक अनन्त हैं, द्वीन्द्रिय यावत् वैमानिक असंख्यात हैं तथा सिद्ध अनन्त हैं । इस कारण जीवद्रव्य अनन्त हैं।
भगवन् ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, अथवा जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं? गौतम ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते। भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि यावत्-नहीं आते ? गौतम ! जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण-इन पाँच शरीरों के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय इन पाँच इन्द्रियों के रूप में, मनोयोग, वचनयोग और काययोग तथा श्वासोच्छवास के रूप में परिणमाते हैं। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है।
भगवन् ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं अथवा नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं? गौतम ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं, किन्तु नैरयिक, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते । भगवन् ! किस कारण से? गौतम! नैरयिक, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं । ग्रहण करके वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा यावत् श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करते हैं । हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए । किन्तु विशेष यह है कि जिसके जितने शरीर, इन्द्रियाँ तथा योग हों, उतने यथायोग्य कहने चाहिए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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