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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक
शतक-२५ सूत्र-८६१
पच्चीसवें शतक के ये बारह उद्देशक हैं लेश्या, द्रव्य, संस्थान, युग्म, पर्यव, निर्ग्रन्थ, श्रमण, ओघ, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि ।
शतक-२५ - उद्देशक-१ सूत्र- ८६२
उस काल और उस समय में श्री गौतम स्वामी ने राजगृह में यावत् इस प्रकार पूछा-भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? गौतम ! छह हैं । यथा कृष्णलेश्या आदि । शेष वर्णन प्रथम शतक के द्वीतिय उद्देशक अनुसार यहाँ भी लेश्याओं का विभाग, उनका अल्पबहत्व, यावत् चार प्रकार के देव और चार प्रकार की देवियों के मिश्रित अल्पबहत्वपर्यन्त जानना चाहिए। सूत्र- ८६३
भगवन् ! संसारसमापन्नक जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! चौदह हैं । यथा-सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म पर्याप्तक, बादर अपर्याप्तक, बादर पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक-पर्याप्तक, असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक ।
भगवन् ! इन चौदह प्रकार के संसार-समापन्नक जीवों में जघन्य और उत्कृष्ट योग की अपेक्षा से, कौन जीव, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का जघन्य योग सबसे अल्प है, बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय का जघन्य योग उससे असंख्यातगुना है, उससे अपर्याप्त द्वीन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, उससे अपर्याप्त त्रीन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, उससे अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, उससे अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, उससे अपर्याप्तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना, उससे अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त द्वीन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त त्रीन्द्रिय, पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य योग उत्तरोत्तर असंख्यातगुना है, उससे अपर्याप्त द्वीन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, इसी प्रकार उनसे अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतु-रिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त द्वीन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, पर्याप्त त्रीन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त चतुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, उससे पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, और उससे भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है। सूत्र - ८६४
भगवन् ! प्रथम समय में उत्पन्न दो नैरयिक समयोगी होते हैं या विषमयोगी ? गौतम ! कदाचित् समयोगी होते हैं और कदाचित् विषमयोगी। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम! आहारक नारक से अनाहारक नारक और अनाहारक नारक से आहारक नारक कदाचित् हीनयोगी, कदाचित् तुल्ययोगी और कदाचित् अधिक-योगी होता है। यदि वह हीन योग वाला होता है तो असंख्यातवे भागहीन, संख्यातवे भागहीन, संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है। यदि अधिक योग वाला होता है तो असंख्यातवा भाग अधिक, संख्यातवा भाग अधिक, संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होता है। इस कारण से कहा गया है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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