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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-८६८
भगवन् ! असंख्य लोकाकाश में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । गौतम ! निर्व्याघात से छहों दिशाओं से तथा व्याघात की अपेक्षा-कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पाँच दिशाओं से । भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश में एकत्रित पुद्गल कितनी दिशाओं से पृथक् होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार स्कन्ध के रूप में पुद्गल उपचित होते हैं और अपचित होते हैं। सूत्र- ८६९
__भगवन् ! जीव जिन पुद्गलद्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ? गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी । भगवन् ! (जीव) उन द्रव्यों को, द्रव्य से ग्रहण करता है या क्षेत्र से, काल से या भाव से ग्रहण करता है ? गौतम ! वह उन द्रव्यों को द्रव्य से यावत् भाव से भी ग्रहण करता है । द्रव्य से-वह अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को, क्षेत्र से असंख्येयप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, इत्यादि, प्रज्ञापनासूत्र के आहारउद्देशक अनुसार यहाँ भी यावत्-निर्व्याघात से छहों दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित् तीन कदाचित् चार और कदाचित् पाँच दिशाओं से पुद्गलों को ग्रहण करता है।
भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता है, तो क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ? गौतम ! पूर्ववत् । विशेष यह है कि जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता है, वे नियम से छहों दिशाओं में आए हुए होते हैं । आहारकशरीर के विषय में भी इसी प्रकार समझना।।
भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को तैजसशरीर के रूप में ग्रहण करता है..? गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं । शेष औदारिकशरीर की वक्तव्यतानुसार । कार्मणशरीर के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए, यावत् भाव से भी ग्रहण करता है।
भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को द्रव्य से ग्रहण करता है, वे एक प्रदेश वाले ग्रहण करता है या दो प्रदेश वाले इत्यादि प्रश्न । गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के भाषापद अनुसार आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से ग्रहण नहीं करता है तक कहना चाहिए । भगवन् ! जीव कितनी दिशाओं से आए हुए द्रव्य ग्रहण करता है ? गौतम ! निर्व्याघात हो तो छहों दिशाओं से इत्यादि औदारिकशरीर से सम्बन्धित वक्तव्यतानुसार कहना । भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रिय रूप में ग्रहण करता है ? (इत्यादि पूर्ववत्) । गौतम ! वैक्रियशरीर-सम्बन्धी वक्तव्यता के समान जानो। इसी प्रकार यावत् जिह्वेन्द्रिय-पर्यन्त जानना । स्पर्शेन्द्रिय के विषय में औदारिकशरीर के समान समझना चाहिए । कार्मणशरीर की वक्तव्यता के समान मनोयोग की वक्तव्यता समझनी चाहिए तथा नियम से छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है । इसी प्रकार वचनयोग के द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए । काययोग के रूप में ग्रहण का कथन औदारिकशरीर विषयक कथनवत् है।
भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है...? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! औदारिकशरीर के समान कहना चाहिए, यावत् कदाचित् पाँच दिशा से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है । कईं आचार्य चौबीस दण्डकों पर इन पदों को कहते हैं, किन्तु जिसके जो (शरीर, इन्द्रिय, योग आदि) हो, वही उसके लिए यथायोग्य कहना चाहिए।
शतक-२५ - उद्देशक-३ सूत्र-८७०
भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! छह प्रकार के-परिमण्डल, वृत्त, त्र्यस्र, चतुरस्र, आयत और अनित्थंस्थ।
भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! वे संख्यात नहीं हैं, असंख्यात भी नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं । भगवन् ! वृत्त-संस्थान पृच्छा । गौतम ! पूर्ववत् (अनन्त) हैं । इसी प्रकार
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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