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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक पण्डकवन में समवसरण करता है, वहाँ भी वह चैत्यों की वन्दना करता है। फिर वहाँ से वह लौटता है, वापस यहाँ आ जाता है । यहाँ आकर वह चैत्यों की वन्दना करता है । हे गौतम ! विद्याचारण मुनि की ऊर्ध्व गति का विषय ऐसा कहा गया है। यदि वह विद्याचारण मुनि उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही काल कर जाए तो उसको आराधना नहीं होती और यदि वह आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसको आराधना होती है। सूत्र-८०२
भगवन् ! जंघाचारण को जंघाचारण क्यों कहते हैं ? गौतम ! अन्तररहित अट्ठम-अट्ठम के तपश्चरण-पूर्वक आत्मा को भावित करते हुए मुनि को जंघाचारण नामक लब्धि उत्पन्न होती है, इस कारण उसे जंघाचारण कहते हैं भगवन ! जंघाचारण की शीघ्र गति कैसी होती है और उसकी शीघ्रगति का विषय कितना होता है? गौतम! समग्र वर्णन विद्याचारणवत् । विशेष यह है कि इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र वापस लौटकर आ जाता है । भगवन् ! जंघाचारण की तीरछी गति का विषय कितना है ? गौतम ! वह यहाँ से एक उत्पात से रुचकवरद्वीप में समवसरण करता है, वहाँ चैत्य-वन्दना करता है । चैत्यों की स्तुति करके लौटते समय दूसरे उत्पात से नन्दीश्वर-द्वीप में समवसरण करता है तथा वहाँ चैत्यवन्दन करता है। वहाँ से लौटकर यहाँ आकर वह चैत्य-स्तुति करता है।
भगवन् ! जंघाचारण की ऊर्ध्व-गति का विषय कितना कहा गया है ? गौतम ! वह यहाँ से एक उत्पात में पण्डकवनमें समवसरण करता है। फिर वहाँ ठहरकर चैत्यवन्दन करता है। फिर वहाँ से लौटते हुए दूसरे उत्पात से नन्दनवन में समवसरण करता है । फिर वहाँ चैत्यवन्दन करता है । वहाँ से वापस यहाँ आकर चैत्यवन्दन करता है। यह जंघाचारण उस स्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किए बिना यदि काल कर जाए तो उसको आराधना नहीं होती । यदि वह उस प्रमादस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसको आराधना होती है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-२० - उद्देशक-१० सूत्र-८०३
भगवन् ! जीव सोपक्रम-आयुष्य वाले होते हैं या निरुपक्रम-आयुष्य वाले होते हैं ? गौतम ! दोनों । भगवन् नैरयिक सोपक्रम-आयुष्य वाले होते हैं, अथवा निरुपक्रम-आयुष्य वाले ? गौतम ! वे निरुपक्रम-आयुष्य वाले होते हैं। इसी प्रकार स्तनितकुमारों-पर्यन्त (जानना) । पृथ्वीकायिकों का आयुष्य जीवों के समान जानना । इसी प्रकार मनुष्यों-पर्यन्त कहना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नैरयिकों के समान हैं। सूत्र-८०४
भगवन ! नैरयिक जीव, आत्मोपक्रम से, परोक्रम से या निरुपक्रम से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! तीनों से । इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना । भगवन् ! नैरयिक आत्मोपक्रम से उद्वर्त्तते हैं अथवा परोपक्रम से या निरुपक्रम से उद्वर्त्तते हैं ? गौतम ! वे निरुपक्रम से उद्वर्तित होते हैं । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए । पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्यों तक का उद्वर्त्तन तीनों ही उपक्रमों से होता है । शेष सब जीवों का उद्वर्त्तन नैरयिकों के समान कहना चाहिए । विशेष यह है कि ज्योतिष्क एवं वैमानिक के लिए च्यवन करते हैं, (कहना चाहिए)।
भगवन ! नैरयिक जीव आत्मऋद्धि से उत्पन्न होते हैं या परऋद्धि से उत्पन्न होते हैं ? गौतम! वे आत्म-ऋद्धि से उत्पन्न होते हैं, परऋद्धि से उत्पन्न नहीं होते । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए । भगवन ! नैरयिक जीव आत्मऋद्धि से उद्वर्तित होते हैं या परऋद्धि से ? गौतम ! वे आत्मऋद्धि से उद्वर्तित होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । विशेष यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक के लिए च्यवन कहना चाहिए।
___भगवन् ! नैरयिक जीव अपने कर्म से उत्पन्न होते हैं या परकर्म से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे आत्मकर्म से उत्पन्न होते हैं, परकर्म से नहीं । इसी प्रकार वैमानिकों (तक कहना) । इसी प्रकार उद्वर्त्तना-दण्डक भी कहना । भगवन्! नैरयिक जीव आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, अथवा परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना । इसी प्रकार उद्वर्त्तना-दण्डक भी कहना।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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