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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक
शतक-२०- उद्देशक-२ सूत्र - ७८१
भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का लोकाकाश और अलोकाकाश । भगवन् ! क्या लोकाकाश जीवरूप है, अथवा जीवदेश-रूप है ? गौतम ! द्वीतिय शतक के अस्ति-उद्देशक अनुसार कहना चाहिए । विशेष में धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक यहाँ कहना चाहिए-भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय लोक, लोकमात्र, लोक-प्रमाण, लोक-स्पृष्ट और लोक को अवगाढ़ करके रहा हुआ है, इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय तक कहना चाहिए।
भगवन् ! अधोलोक,धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अवगाढ़ करके रहा हआ है ? गौतम ! वह कुछ अधिक अर्द्ध भाग को अवगाढ़ करके रहा हुआ है । दूसरे शतक के दशवें उद्देशक अनुसार जानना । यावत्-भगवन् ईषत्प्रारभारापृथ्वी लोकाकाश के संख्यातवें भाग को अवागहित करके रही हई है अथवा असंख्यातवें भाग को ? गौतम ! वह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग को अवगाहित की हुई है, (वह लोक के) संख्यात भागों को अथवा असंख्यात भागों को भी व्याप्त करके स्थित नहीं है और न समग्र लोक को व्याप्त करके। सूत्र - ७८२
भगवन! धर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक । यथा-धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, यावत परिग्रहविरमण, अथवा क्रोध-विवेक. यावत-मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक. अथवा ईर्यासमिति. यावत उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिकासमिति, अथवा मनोगप्ति, वचनगप्ति या कायगप्ति: ये सब तथा इनके समान जितने भी दूसरे इस प्रकार के शब्द हैं, वे धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं । भगवन ! अधर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक । यथा-अधर्म, अधर्मास्तिकाय, अथवा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, अथवा ईर्यासम्बन्धी असमिति, यावत परिष्ठापनिकासम्बन्धी असमिति; अथवा मन-अगुप्ति, यावत् काय-अगुप्ति; ये सब और इसी प्रकार के जो अन्य शब्द हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं।
भगवन ! आकाशास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं? गौतम! अनेक यथा-आकाश, आकाशास्तिकाय, अथवा गगन, नभ, अथवा सम, विषम, खह, विहायस, वीचि, विवर, अम्बर, अम्बरस, छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख, अर्द, व्यर्द, आधार, व्योम, भाजन, अन्तरिक्ष, श्याम, अवकाशान्तर, अगम, स्फटिक और अनन्त; ये सब तथा इनके समान सभी अभिवचन आकाशास्तिकाय के हैं । भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक, यथा-जीव, जीवास्तिकाय, या प्राण, भूत, सत्त्व, अथवा विज्ञ, चेता, जेता, आत्मा, रंगण, हिण्डुक, पुद्गल, मानव, कर्त्ता, विकर्ता, जगत्, जन्तु, योनि, स्वयम्भू, सशरीरी, नायक, अन्तरात्मा, ये सब और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन जीव के हैं
भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक | यथा-पुद्गल, पुद्गलास्तिकाय, परमाणु-पुद्गल अथवा द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध; ये और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन पुद्गल के हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। यह इसी प्रकार है।
शतक-२० - उद्देशक-३ सूत्र - ७८३
भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, औत्पत्तिकी यावत् पारिणामिकी बुद्धि, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम; नैरयिकत्व, असुरकुमारत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, चक्षुदर्शन यावत् केवलदर्शन, आभिनिबोधिकज्ञान यावत् विभंगज्ञान, आहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा, औदारिकशरीर यावत् कार्मण शरीर, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग; ये सब और इनके जैसे अन्य धर्म; क्या आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते हैं ? हाँ, गौतम ! यावत् आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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