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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक - २०
सूत्र - ७७९
(इस शतक में दश उद्देशक हैं ) द्वीन्द्रिय, आकाश, प्राणवध, उपचय, परमाणु, अन्तर, बन्ध, भूमि, चारण और सोपक्रम जीव ।
शतक - २० उद्देशक- १
शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक
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सूत्र - ७८०
'भगवन्! राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-भगवन् । क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पाँच द्वीन्द्रिय जीव मिलकर एक साधारण शरीर बाँधते हैं, इसके पश्चात् आहार करते हैं ? अथवा आहार को परिणमाते हैं, फिर विशिष्ट शरीर को बाँधते हैं? गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव पृथक्-पृथक् आहार करने वाले और उसका पृथक्-पृथक् परिणमन करने वाले होते हैं । इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बाँधते हैं, फिर आहार करते हैं तथा उसका परिणमन करते हैं और विशिष्ट शरीर बाँधते हैं ।
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भगवन् ! उन जीवों के कितनी लेश्याएं हैं? गौतम तीन, यथा- कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोत- लेश्या । इस प्रकार समग्र वर्णन, उन्नीसवें शतक में अग्निकायिक जीवों के समान उद्वर्तीत होते हैं, तक कहना । विशेष यह है कि ये द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं । उनके नियमतः दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं । वे मनोयोगी नहीं होते, वे वचनयोगी भी होते हैं और काययोगी भी होते हैं । वे नियमतः छह दिशा का आहार लेते हैं। क्या उन जीवों को हम इष्ट और अनिष्ट रस तथा इष्ट-अनिष्ट स्पर्श का प्रतिसंवेदन करते हैं, ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे रसादि का संवेदन करते हैं । उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों में भी समझना । किन्तु इनकी इन्द्रियों में और स्थिति में अन्तर है। स्थिति प्रज्ञापना- सूत्र के अनुसार जानना ।
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भगवन्! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पाँच आदि पंचेन्द्रिय मिलकर एक साधारण शरीर बाँधते हैं? गौतम! पूर्ववत् द्वीन्द्रियजीवों के समान है । विशेष यह कि इनके छहों लेश्याएं और तीनों दृष्टियाँ होती हैं । इनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से होते हैं। तीनों योग होते हैं। भगवन्। क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि हम आहार ग्रहण करते हैं? गौतम कितने ही (संजी) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है और कई (असंज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता कि हम आहार ग्रहण करते हैं. परन्तु वे आहार तो करते ही हैं।
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भगवन् ! क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट शब्द, रूप, गन्ध, रस अथवा स्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! कतिपय (संज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा, यावत् वच होता है और किसी-(असंज्ञी) को ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता है । परन्तु वे संवेदन तो करते ही हैं । भगवन् ! क्या ऐसा कहा जाता है कि वे (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ? गौतम ! उनमें से कई (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है और कईं जीव नहीं रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है । जिन जीवों के प्रति वे प्राणातिपात आदि करते हैं, उन जीवों में से कईं जीवों को- 'हम मारे जाते हैं, और ये हमें मारने वाले हैं इस प्रकार का विज्ञान होता है और कईं जीवों को इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता । उन जीवों का उत्पाद सर्व जीवों से यावत् सर्वार्थसिद्ध से भी होता है। उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की होती है उनमें केवलीसमुद्घात को छोड़कर ( शेष छह समुद्घात होते हैं। वे मरकर सर्वत्र सर्वार्थसिद्ध तक जाते हैं। शेष सब बातें द्वीन्द्रियजीवों के समान है।
भगवन् । इन द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक है? सबसे अल्प पंचेन्द्रिय जीव हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं। हे भगवन्! यह इसी प्रकार है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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