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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक भगवन् ! आपके लिए सरिसव भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? सोमिल ! भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। भगवन् यह आप कैसे कहते हैं ? सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण नयों में दो प्रकार के सरिसव कहे गए हैं, यथा-मित्र-सरिसव और धान्य-सरिसव । जो मित्र-सरिसव हैं, वह तीन प्रकार के हैं, यथा-सहजात, सहवर्धित और सहपांशुक्रीडित । ये तीनों श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो धान्यसरिसव हैं, वह भी दो प्रकार के हैं, यथा-शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । जो अशस्त्रपरिणत हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो शस्त्रपरिणत हैं, वह भी दो प्रकार के हैं, यथा-एषणीय और अनेषणीय । अनेषणीय सरिसव तो श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । एषणीय सरिसव दो प्रकार के हैं, यथा-याचित और अयाचित । अयाचित श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । याचित भी दो प्रकार के हैं, यथा-लब्ध और अलब्ध । अलब्ध श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं और जो लब्ध हैं, वह श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं । इस कारण से, ऐसा कहा गया है कि- सरिसव मेरे लिक्ष भक्ष्य भी हैं, और अभक्ष्य भी हैं।
भगवन् ! आपके मत में मास् भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं ? सोमिल ! मास भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। भगवन ! ऐसा क्यों कहते हैं ? सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण-नयों में मास दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-द्रव्यमास और कालमास । उनमें से जो कालमास हैं, वे श्रावण से लेकर आषाढ़-मास-पर्यन्त बारह हैं, यथा-श्रवण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ । ये श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । द्रव्य-मास दो प्रकार का है। यथा अर्थमाष और धान्यमाष । उनमें से अर्थमाष दो प्रकार का है यथा-स्वर्णमाष और रौप्यमाष । ये दोनों माष श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं | धान्यमाष दो प्रकार का है-यथा-शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । इत्यादि सभी आलापक धन्य-सरिसव के समान कहने चाहिए, यावत् इसी कारण से हे सोमिल ! कहा गया है कि मास भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।
भगवन् ! आपके लिए कुलत्थ भक्ष्य हैं अथवा अभक्ष्य हैं ? सोमिल ! कुलत्थ मेरे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं । भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि कुलत्थ...यावत् अभक्ष्य भी हैं ? सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मणनयों में कुलत्था दो प्रकार की कही गई है, यथा-स्त्रीकुलत्था और धान्यकुलत्था । स्त्रीकुलत्था तीन प्रकार की कही गई है, यथा-कुलवधू या कुलमाता, अथवा कुलकन्या । ये तीनों श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । उनमें से जो धान्यकुलत्था है, उसके सभी आलापक धान्य-सरिसव के समान हैं, यावत्-हे सोमिल ! इसीलिए कहा गया है कि धान्यकुलत्था भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। सूत्र-७५७
___ भगवन् ! आप एक हैं, या दो हैं, अथवा अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं अथवा अनेक-भूत-भाव-भाविक हैं? सोमिल ! मैं एक भी हूँ, यावत् अनेक-भूत-भाव-भाविक भी हूँ। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? सोमिल ! मैं द्रव्यरूप से एक हूँ, ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से दो हूँ । आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित हूँ तथा उपयोग की दृष्टि से मैं अनेकभूत-भाव-भविक भी हूँ । हे सोमिल ! इसी दृष्टि से यावत् अनेकभूतभाव-भविक भी हूँ | भगवान की अमृतवाणी सूनकर वह सोमिल ब्राह्मण सम्बुद्ध हुआ । उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, यावत्-उसने कहा-भगवन् ! जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है। जिस प्रकार आप देवानप्रिय के सान्निध्य में बहत-से राजा-महाराजा आदि, हिरण्यादि का त्याग करके मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होते हैं, उस प्रकार करने में मैं अभी समर्थ नहीं हूँ; यावत्-उसने बारह प्रकार के श्रावकधर्म को स्वीकार किया । श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके यावत् अपने घर लौट गया । सोमिल ब्राह्मण श्रमणोपासक हो गया । अब वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता होकर यावत् विचरने लगा।
गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके पूछा-क्या सोमिल ब्राह्मण आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? इत्यादि । शंख श्रमणोपासक के समान समग्र वर्णन, सर्व दुःखों का अन्त करेगा, (यहाँ तक कहना चाहिए)। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार
शतक-१८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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