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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक वायुका से पृष्ट है या वायुकाय द्विप्रदेशिक-स्कन्ध से स्पृष्ट है ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक जानना । भगवन् ! अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में प्रश्न - गौतम ! अनन्तप्रदेशी स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है तथा वायुकाय अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता ।
भगवन् ! वस्ति (मशक) वायुकाय से स्पृष्ट है, अथवा वायुकाय वस्ति से स्पृष्ट है ? गौतम ! वस्ति वायुकाय से पृष्ट है, किन्तु वायुकाय, वस्ति से स्पृष्ट नहीं है ।
सूत्र - ७५५
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे वर्ण से - काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत, गन्ध से सुगन्धित और दुर्गन्धित; रस से-तिक्त, कटुक कसैला, अम्ल और मधुर; तथा स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष-इन बीस बोलों से युक्त द्रव्य क्या अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, यावत् अन्योन्य सम्बद्ध हैं? हाँ, गौतम ! हैं । इस प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना चाहिए। भगवन् ! सौधर्मकल्प के नीचे वर्ण से- इत्यादि प्रश्न | गौतम ! पूर्ववत् है। इसी प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' सूत्र - ७५६
उस काल उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। वहाँ द्युतिपलाश नाम का (चैत्य) था। उस वाणिज्य ग्राम नगर में सोमिल ब्राह्मण रहता था । जो आढ्य यावत् अपराभूत था तथा ऋग्वेद यावत् अथर्ववेद, तथा शिक्षा, कल्प आदि वेदांगों में निष्णात था । वह पाँच सौ शिष्यों और अपने कुटुम्ब पर आधिपत्य करता हुआ यावत् सुखपूर्वक जीवनयापन करता था। उन्हीं दिनों में श्रमण भगवान महावीर स्वामी यावत् पधारे। यावत् परीषद् भगवान की पर्युपासना करनेल लगी ।
जब सोमिल ब्राह्मण को भगवान महावीर स्वामी के आगमन की बात मालूम हुई तो उसके मन मे इस प्रकार का यावत् विचार उत्पन्न हुआ- पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए तथा ग्रामानुग्राम सुखपूर्वक पदार्पण करते हुए ज्ञातपुत्र श्रमण (महावीर) यावत् यहाँ आए हैं, अतः मैं श्रमण ज्ञातपुत्र के पास जाऊं और वहाँ जाकर इन और ऐसे अर्थ यावत् व्याकरण उनसे पूछें। यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों यावत् प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दन- नमस्कार करूँगा, यावत् उनकी पर्युपासना करूँगा । यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों और प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकेंगे तो मैं उन्हें इन्हीं अर्थों और उत्तरों से निरुत्तर कर दूँगा। ऐसा विचार किया। तत्पश्चात् उसने स्नान किया, यावत् शरीर को वस्त्र और सभी अलंकारों से विभूषित किया। फिर वह अपने घर से नीकला और अपने एक सौ शिष्यों के साथ पैदल चलकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आया और न अति दूर, न अति निकट खड़े होकर उसने उनसे इस प्रकार पूछा- भन्ते ! आपके (धर्म में) यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुकविहार हैं ? सोमिल मेरे (धर्म में) यात्रा भी है, यापनीय भी है, अव्याबाध भी है और प्रासुकविहार भी है। भन्ते आपके यहाँ यात्रा कैसी है ? सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यक आदि योगों में जो मेरी यतना है, वही मेरी यात्रा है ।
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भगवन् ! आपके यापनीय क्या है ? सोमिल ! दो प्रकार का हे । इन्द्रिय-यापनीय और नो-इन्द्रिय-यापनीय। भगवन् ! वह इन्द्रिय-यापनीय क्या है ? सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये पाँचों इन्द्रियाँ निरुपहत और वश में हैं, यह मेरा इन्द्रिय-यापनीय है । भन्ते ! वह नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ? सोमिल ! जो मेरे क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय व्युच्छिन्न हो गए हैं; और उदयप्राप्त नहीं हैं, यह मेरा नोइन्द्रिययापनीय है। इस प्रकार मेरे ये यापनीय हैं।
भगवन् । आपके अव्याबाध क्या है ? सोमिल मेरे वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातजन्य तथा अनेक प्रकार के शरीर सम्बन्धी रोग, आतंक एवं शरीरगत दोष उपशान्त हो गए हैं, वे उदय में नहीं आते। यही मेरा अव्याबाध है। भगवन्! आपके प्रासुकविहार कौन-सा है ? सोमिल आराम, उद्यान, देवकुल, सभा और प्रपा आदि स्थानों में स्त्री-पशु-नपुंसकवर्जित वसतियों में प्रासुक, एषणीय पीठ, फलक, शय्या संस्तारक आदि स्वीकार करके में विचरता हूँ, यही मेरा प्रासुकविहार है।
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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