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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक
शतक-१९ सूत्र - ७५८
उन्नीसवें शतक में यह दस उद्देशक हैं-लेश्या, गर्भ, पृथ्वी, महाश्रव, चरम, द्वीप, भवन, निर्वृत्ति, करण और वनचर-सुर।
शतक-१९ - उद्देशक-१ सूत्र-७५९
राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! लेश्याएं कितनी हैं ? गौतम ! छह, प्रज्ञापनासूत्र का लेश्योद्देशक सम्पूर्ण कहना, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१९ - उद्देशक-२ सूत्र - ७६०
____ भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? प्रज्ञापनासूत्र के सत्तरहवें पद का छठा समग्र गर्भोद्देशक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१९ - उद्देशक-३ सूत्र-७६१
राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! क्या कदाचित् दो यावत् चार-पाँच पृथ्वीकायिक मिलकर साधारण शरीर बाँधते हैं. बाँधकर पीछे आहार करते हैं. फिर उस आहार का परिणमन करते हैं और फिर इसके बाद शरीर बन्ध करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येक-पृथक-पृथक आहार करने वाले हैं
और उस आहार को पृथक-पृथक करते हैं; इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बाँधते हैं । इसके पश्चात् वे आहार करते हैं, उसे परिणमाते हैं और फिर शरीर बाँधते हैं।
भगवन् ! उन (पृथ्वीकायिक) जीवों के कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम ! चार, यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेश्या । भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यगमिथ्यादृष्टि हैं ? गौतम! वे जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं हैं । भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं? गौतम ! वे ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। उनमें दो अज्ञान निश्चित रूप से पाए जाते हैं मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान | भगवन् ! क्या वे जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं, अथवा काययोगी हैं ? गौतम! वे काययोगी हैं । भगवन् वे जीव साकारोपयोगी हैं या अनाकारोपयोगी हैं ? गौतम ! वे साकारोपयोगी भी हैं और अनाकारोपयोगी भी हैं।
भगवन् ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव क्या आहार करते हैं? गौतम! वे द्रव्य से-अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, इत्यादि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के आहारोद्देशक के अनुसार-सर्व आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं, तक (जानना)। भगवन्! वे जीव जो आहार करते हैं, क्या उसका चय होता है, और जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता? जिस आहार का चय हुआ है, वह आहार बाहर नीकलता है ? और (साररूप भाग) शरीर-इन्द्रियादि रूपमें परिणत होता है? गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! उन जीवों को- हम आहार करते हैं ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन , वचन होते हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । फिर भी वे आहार तो करते हैं। भगवन् ! क्या उन जीवों को यह संज्ञा यावत् वचन होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, फिर भी वे वेदन तो करते ही हैं।
भगवन् ! क्या वे (पृथ्वीकायिक) जीव प्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं? हाँ, गौतम ! वे जीव रहे हए हैं तथा वे जीव, दूसरे जिन पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसादि करते हैं, उन्हें भी, ये जीव हमारी हिंसादि करने वाले हैं, ऐसा भेद ज्ञात नहीं होता । भगवन् ! ये पृथ्वीकायिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति-पद में पृथ्वीकायिक जीवों के उत्पाद समान यहाँ भी कहना।
भगवन् ! उन पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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