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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र - ७५०
उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर में यावत् पृथ्वीशिलापट्ट था । उस गुणशीलक उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीर्थिक निवास करते थे । उन दिनों में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परीषद् वापिस लौट गई । उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी श्री इन्द्रभूति नामक अनगार यावत्, ऊर्ध्वजानु यावत् तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे।
एक दिन वे अन्यतीर्थिक, श्री गौतम स्वामी के पास आकर कहने लगे-आर्य ! तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । इस पर गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा- हे आर्यो ! किस कारण से हम तीन करण, तीन योग से असंयत, अविरत, यावत् एकान्त बाल हैं ?' तब वे अन्यतीर्थिक, भगवान् गौतम से कहने लगे हे आर्य ! तम गमन करते हए जीवों को आक्रान्त करते हो, मार देते हो, यावत-उपद्रवित कर देते हो प्राणियों को आक्रान्त यावत उपद्रत करते हए तम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत एकान्त बाल हो । यह सूनकर गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा-आर्यो ! हम गमन करते हुए न तो प्राणियों को कुचलते हैं, न मारते हैं और न भयाक्रान्त करते हैं, क्योंकि आर्यो ! हम गमन करते हुए समय काया, योग को और धीमी-धीमी गति को ध्यान में रखकर देख-भाल कर विशेष रूप से निरीक्षण करके चलते हैं । अतः हम देख-देख कर एवं विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए चलते हैं, इसलिए हम प्राणियों को न तो दबाते-कुचलते हैं, यावत् न उपद्रवित करते हैं । इस प्रकार प्राणियों को आक्रान्त न करते हुए, यावत् पीड़ित न करते हुए हम यावत् एकान्त पण्डित हैं । हे आर्यो ! तुम स्वयं ही त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो।
इस पर वे अन्यतीर्थिक भगवान गौतम से इस प्रकार बोले-आर्य ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध से यावत् एकान्त बाल हैं? तब भगवान गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! तुम चलते हुए प्राणियों को आक्रान्त करते हो, यावत् पीड़ित करते हो । जीवों को आक्रान्त करते हुए यावत् पीड़ित करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर दिया । तत्पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान महावीर के समीप पहुंचे और उन्हें वन्दन-नमस्कार करके न तो अत्यन्त दूर और न अतीव निकट यावत् पर्युपासना करने लगे । श्रमण भगवान महावीर ने कहा-हे गौतम ! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को अच्छा कहा, तुमने उन अन्यतीर्थिकों को यथार्थ कहा । गौतम ! मेरे बहुत-से शिष्य श्रमण निर्ग्रन्थ छद्मस्थ हैं, जो तम्हारे उत्तर देने में समर्थ नहीं हैं। जैसा कि तमने उन अन्यतीर्थिकों को ठीक कहा: उन अन्यतीर्थिकों को बहुत ठीक कहा।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृष्ट-तष्ट होकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार कर पूछासूत्र - ७५१
भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य परमाणु-पुद्गल को जानता-देखता है अथवा नहीं जानता-नहीं देखता है ? गौतम ! कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं, और कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य द्वीप्रदेशी स्कन्ध को जानता-देखता है, अथवा नहीं जानता, नहीं देखता है ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक कहना । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानता देखता है ? कोई जानता है और देखता है, कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं; कोई जानता नहीं, किन्तु देखता है और कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं।
भगवन् ! क्या आधोऽवधिक मनुष्य, परमाणुपुद्गल को जानता देखता है ? इत्यादि प्रश्न । छद्मस्थ मनुष्य अनुसार आधोऽवधिक मनुष्य के विषय में समझना चाहिए । इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिए । भगवन् ! क्या परमावधिज्ञानी मनुष्य परमाणु-पुद्गल को जिस समय जानता है, उसी समय देखता है ? और जिस समय देखता है, उसी समय जानता है । गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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