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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक प्रकार की उपधि होती है। इसी प्रकार अवशिष्ट सभी जीवों के, यावत् वैमानिकों तक तीन प्रकार की उपधि होती है । भगवन् ! परिग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? तीन प्रकार का, यथा- कर्म-परिग्रह, शरीर-परिग्रह और बाह्यभाण्डमात्रोपकरण- परिग्रह भगवन्! नैरयिकों में कितने प्रकार का परिग्रह कहा गया है ? गौतम! उपधि अनुसार परिग्रह के विषय में जानना ।
भगवन् ! प्रणिधान कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का मनःप्रणिधान, वचनप्रणिधान और कायप्रणिधान । भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रणिधान हैं ? गौतम ! तीनों । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए भन्ते! पृथ्वीकायिक जीवों के प्रणिधान के विषयमें प्रश्न। गौतम! इनमें एकमात्र कायप्रणिधान ही होता है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों तक जानना । भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के विषयमें प्रश्न । गौतम! दो प्रकार का वचन - प्रणिधान, कायप्रणिधान । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक कहना शेष सभी जीवों के तीनों प्रकार के प्रणिधान होते हैं। भगवन् । दुष्प्रणिधान कितने प्रकार का है? गोतम तीन प्रकार का मनो- दुष्प्रणिधान, वचन दुष्प्रणिधान और काय दुष्प्रणिधान । प्रणिधान के अनुसार दुष्प्रणिधान के विषय में भी कहना। भगवन्! सुप्रणिधान कितने प्रकार का है? गौतम तीन प्रकार का मनः सुप्रणिधान वचनसुप्रणिधान और कायसुप्रणिधान । भगवन्! मनुष्यों के कितने प्रकार का सुप्रणिधान है ? गौतम ! तीनों प्रकार के । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार का है । तत्पश्चात् भगवान महावीर ने यावत् बाह्य जनपदों में विहार किया ।
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सूत्र - ७४४
उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था। (वर्णन) । वहाँ गुणशील नामक उद्यान था। (वर्णन) । यावत् वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्टक था। उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत से अन्यतीर्थिक रहते थे, यथा- कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के अनुसार, यावत्- यह कैसे माना जा सकता है?' यहाँ तक समझना चाहिए । उस राजगृह नगर में धनाढ्य यावत् किसी से पराभूत न होने वाला, तथा जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, यावत् मद्रुक नामक श्रमणोपासक रहता था। तभी अन्यदा किसी दिन पूर्वानुपूर्वीक्रम से विचरण करते हुए श्रमण भगवान महावीर वहाँ पधारे। वे समवसरण में विराजमान हुए । परीषद् यावत् पर्युपासना करने लगी । मद्रुक श्रमणोपासक ने जब श्रमण भगवान महावीर के आगमन का यह वृत्तान्त जाना तो वह हृदय में अतीव हर्षित एवं यावत् सन्तुष्ट हुआ । उसने स्नान किया, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर अपने घर से नीकला । चलते-चलते वह उन अन्यतीर्थिकों के निकट से होकर जाने लगा ।
तभी उन अन्यतीर्थिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक को अपने निकट से जाते हुए देखा । उसे देखते ही उन्होंने एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! यह मद्रुक श्रमणोपासक हमारे निकट से होकर जा रहा है । हमें यह बात अविदित है; अतः देवानुप्रियो इस बात को मटुक श्रमणोपासक से पूछना हमारे लिए श्रेयस्कर है। फिर उन्होंने मद्रुक श्रमणोपासक से पूछा- हे मद्रुक ! बात ऐसी है कि तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पाँच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं, इत्यादि सारा कथन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के समान समझना, यावत्- हे मद्रुक ! यह बात कैसे मानी जाए ?' यह सूनकर मद्रुकर श्रमणोपासक ने कहा- यदि वे धर्मा-स्तिकायादि कार्य करते हैं तभी उस पर से हम उन्हें जानते-देखते हैं; यदि वे कार्य न करते तो कारणरूप में हम उन्हें नहीं जानतेदेखते । इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक से कहा कि हे मद्रुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि तू इस तत्त्व को न जानता है और न प्रत्यक्ष देखता है ।
तभी मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा- आयुष्मन् ! यह ठीक है न कि हवा बहती ? हाँ, यह ठीक है। हे आयुष्मन्। क्या तुम बहती हुई हवा का रूप देखते हो? यह अर्थ शक्य नहीं है। आयुष्मन् । नासिका के सहगत गन्ध के पुद्गल हैं न ? हाँ, हैं । आयुष्मन् ! क्या तुमने उन घ्राण सहगत गन्ध के पुद्गलों का रूप देखा है ? यह बात भी शक्य नहीं है। आयुष्मन् क्या अरणि की लकड़ी के साथ में रहा हुआ अग्निकाय है ? हाँ, है । आयुष्मन् ! क्या तुम अरणि की लकड़ी में रही हुई उस अग्नि का रूप देखते हो? यह बात तो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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