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शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक
तत्पश्चात् माकन्दिपुत्र अनगार अपने स्थान से उठे और श्रमण भगवान महावीर के पास आए। उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन- नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा भगवन्! सभी कर्मों को वेदते हुए, सर्व कर्मों की निर्जरा करते हुए, समस्त मरणों से मरते हुए, सर्वशरीर को छोड़ते हुए तथा चरम कर्म को वेदते हुए, चरम कर्म की निर्जरा करते हुए, चरम मरण से मरते हुए, चरमशरीर को छोड़ते हुए एवं मारणान्तिक कर्म को वेदते हुए, 1 निर्जरा करते हुए, , मारणान्तिक मरण से मरते हुए, मारणान्तिक शरीर को छोड़ते हुए भावितात्मा अनगार के जो चरमनिर्जरा के पुद् गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं? हे आयुष्मन् श्रमणप्रवर! क्या वे पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं ? हाँ, माकन्दिपुत्र ! तथाकथित भावितात्मा अनगार के यावत् वे चरम निर्जरा के पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं।
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
सूत्र - ७२९
भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों के अन्यत्व और नानात्व को जानता देखता है ? हे माकन्दिपुत्र ! प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम इन्द्रियोद्देशक के अनुसार वैमानिक तक जानना चाहिए। यावत् इनमें जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते देखते और आहाररूप में ग्रहण करते हैं. इस कारण से हे माकन्दिपुत्र यह कहा जाता है कि... यावत् जो उपयोगरहित हैं, वे उन पुद्गलों को जानते देखते नहीं, किन्तु उन्हें आहरण- ग्रहण करते हैं, इस प्रकार निक्षेप कहना चाहिए। भगवन् । क्या नैरयिक उन निर्जरा पुद्गलों को नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं ? हाँ, करते हैं, इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों तक जानना ।
भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों को जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं, अथवा वे नहीं जानतेदेखते, और नहीं आहरण करते हैं ? गौतम ! कईं मनुष्य उन पुद्गलों को जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं, कईं मनुष्य नहीं जानते-देखते, किन्तु उन्हें ग्रहण करते हैं । भगवन् ! आप यह किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा- संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । उनमें जो असंज्ञीभूत हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। जो संज्ञीभूत मनुष्य हैं, वे दो प्रकार के हैं, यथा- उपयोगयुक्त और उपयोगरहित उनमें जो उपयोगरहित हैं वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं । मगर जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं, और ग्रहण करते हैं । इस कारण से, हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि कोई मनुष्य नहीं जानते-देखते, किन्तु आहाररूप से ग्रहण करते हैं, तथा कईं जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं । वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए ।
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भगवन् ! वैमानिक देव उन निर्जरा पुद्गलों को जानते-देखते और उनका आहरण करते हैं या नहीं करते हैं? गौतम ! मनुष्यों के समान समझना वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। यथा-मायी मिध्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक | जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक हैं, वे नहीं जानते देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं, तथा जो अमायी. सम्यग्दृष्टि - उपपन्नक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं, यथा- अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक जो अनन्त रोपपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं तथा जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें जो अपर्याप्यतक हैं, वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के हैं; यथा उपयोगयुक्त और उपयोगरहित उनमें से जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते. देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। [जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते देखते हैं और ग्रहण करते हैं ।]
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सूत्र ७३०
भगवन्! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है? माकन्दिपुत्र दो प्रकार का द्रव्यबन्ध और भावबन्ध | भगवन् द्रव्यबन्ध कितने प्रकार का है? माकन्दिपुत्र दो प्रकार का यथा प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध । भगवन् । विससाबन्ध कितने प्रकार का है? माकन्दिपुत्र दो प्रकार का यथा- सादि विखसाबन्ध और अनादि विखसाबन्ध | भगवन् । प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? माकन्दिपुत्र ! दो प्रकार का यथा-शिथिलबन्धनबन्ध और गाढ़ बन्धनबन्ध भगवन् ! भावबन्ध कितने प्रकार का है ? माकन्दिपुत्र ! दो प्रकार का, यथा- मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध |
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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