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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक भगवन् ! नैरयिक जीवों का कितने प्रकार का भावबन्ध कहा गया है ? माकन्दिपुत्र ! दो प्रकार का, यथामूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । इसी प्रकार वैमानिकों तक (कहना चाहिए)। भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? माकन्दिपुत्र ! दो प्रकार का, यथा-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृति-बन्ध । भगवन् ! नैरयिक जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म का भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? माकन्दिपुत्र ! दो प्रकार का, यथा-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए । ज्ञानावर-णीय कर्म दण्डक अनुसार अन्तराय कर्म तक (दण्डक) कहना चाहिए। सूत्र - ७३१
भगवन ! जीव ने जो पापकर्म किया है. यावत करेगा क्या उनमें परस्पर कुछ भेद है ? हाँ, माकन्दिपत्र ! है। गवन ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? माकन्दिपत्र ! जैसे कोई पुरुष धनुष को ग्रहण करे, फिर वह बाण को ग्रहण करे और अमुक प्रकार की स्थिति में खड़ा रहे, तत्पश्चात् बाण को कान तक खींचे और अन्त में, उस बाण को आकाश में ऊंचा फेंके, तो हे माकन्दिपुत्र ! आकाश में ऊंचे फेंके हए उस बाण के कम्पन में भेद है, यावत् -वह उसउस रूप में परिणमन करता है। उसमें भेद है न ? हाँ, भगवन् ! है । हे माकन्दिपुत्र ! इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि उस कर्म के उस-उस रूपादि-परिणाम में भी भेद है । भगवन् ! नैरयिकों ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेंगे, क्या उनमें परस्पर कुछ भेद है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना। सूत्र-७३२
भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं, भगवन् ! उन पुद्गलों का कितना भाग भविष्यकालमें आहाररूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता है ? माकन्दिपुत्र ! असंख्यातवे भाग का आहाररूपसे ग्रहण होता है और अनन्तवे भाग निर्जरण होता है। भगवन्! क्या कोई जीव उन निर्जरा पुद्गलों पर बैठने, यावत् सोनेमें समर्थ है ? माकन्दिपुत्र! यह अर्थ समर्थ नहीं है। आयुष्मन् श्रमण! ये निर्जरा पुद्गल अनाधार रूप कहे गए हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१८ - उद्देशक-४ सूत्र - ७३३
उस काल और उस समय में राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से इस प्रकार पूछाभगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य और प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक तथा पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, एवं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीररहित जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्था-प्रतिपन्न अनगार और सभी स्थूलकाय धारक कलेवर, ये सब (मिलकर) दो प्रकार के हैं-जीवद्रव्य रूप और अजीवद्रव्य रूप । प्रश्न यह है कि क्या ये सभी जीवों के परिभोग में आते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से लेकर सर्वस्थूलकायधर कलेवर तक जो जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप हैं, इनमें से कईं तो जीवों के परिभोग में आते हैं और कईं जीवों के परिभोग में नहीं आते।
भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और सभी स्थलाकार कलेवरधारी; ये सब मिलकर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यस हैं; ये सब, जीवों के परिभोग में आते हैं तथा प्राणातिपातविरमण, यावत मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, धर्मा-स्तिकाय,
स्तिकाय, यावत परमाणु-पुदगल एवं शैलेशीअवस्था प्राप्त अनगार, ये सब मिलकर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप-दो प्रकार के हैं । ये सब जीवों के परिभोग में नहीं आते । इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि यावत् परिभोग में नहीं आते हैं। सूत्र - ७३४
भगवन् ! कषाय कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! चार प्रकार का, इत्यादि प्रज्ञापनासूत्र का कषाय पद, लोभ के वेदन द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों की निर्जरा करेंगे, तक कहना चाहिए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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