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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक धार्मिक उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया तथा उनकी आज्ञा के अनुसार सम्यक् रूप से चलने लगा, यावत् संयम का पालन करने लगा। इस प्रकार एक हजार आठ वणिकों के साथ वह कार्तिक सेठ अनगार बना, तथा ईयासमिति आदि समितियों से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना ।
इसके पश्चात् उस कार्तिक अनगार ने तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर चौदह पूर्वी तक का अध्ययन किया । साथ ही बहुत से चतुर्थ, छट्ठ, अट्ठम आदि तपश्चरण से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। अन्त में उसने एक मास की संलेखना द्वारा अपने शरीर को झूषित किया, अनशन से साठ भक्त का छेदन किया और आलोचना प्रतिक्रमण आदि करके आत्मशुद्धि की, यावत् काल के समय कालधर्म को प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प देवलोक में, सौधर्मावतंसक विमान में रही हुई उपपात सभा में देव शय्या में यावत् शक्र देवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । इसी से कहा गया था - शक्र देवेन्द्र देवराज अभी-अभी उत्पन्न हुआ है । शेष वर्णन गंगदत्त के समान यावत्- 'वह सभी दुःखों का अन्त करेगा, (तक) विशेष यह है कि उसकी स्थिति दो सागरोपम की है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - १८ - उद्देशक- ३
सूत्र - ७२८
उस काल उस समयमें राजगृह नगर था वहाँ गुणशील नामक चैत्य था। यावत् परीषद् वन्दना करके वापिस लौट गई । उस काल एवं उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी यावत् प्रकृतिभद्र माकन्दिपुत्र नामक अनगार ने मण्डितपुत्र अनगार के समान यावत् पर्युपासना करते हुए पूछा भगवन् । क्या कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव, कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीवों में से मरकर अन्तररहित मनुष्य शरीर प्राप्त करता है ? फिर केवलज्ञान उपार्जित करता है ? तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है? हाँ, माकन्दिपुत्र वह यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। भगवन् क्या कापोतलेश्यी अप्कायिक जीव कापोतलेश्यी अप्कायिक जीवों में से मरकर अन्तररहित मनुष्यशरीर प्राप्त करता है? फिर केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सब दुःखों का अन्त करता है? हाँ, माकन्दिपुत्र वह यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। भगवन् कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव के सम्बन्ध में भी वही प्रश्न है। हाँ, माकन्दिपुत्र वह भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है।
'हे भगवन् । यह इसी प्रकार है, भगवन् यह इसी प्रकार है यों कहकर माकन्दिपुत्र अनगार श्रमण भगवान महावीर को यावत् वन्दना - नमस्कार करके जहाँ श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहाँ उनके पास आए, उनसे इस प्रकार कहने लगेआर्यों कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार हे आर्यों! कापोतलेश्यी अप्कायिक जीव भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव भी यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । तदनन्तर उन श्रमण निर्ग्रन्थोंने माकन्दिपुत्र अनगार की इस प्रकार की प्ररूपणा, व्याख्या यावत् मान्यता पर श्रद्धा नहीं की, न ही उसे मान्य किया। वे इस मान्यता के प्रति अश्रद्धालु बनकर भगवान महावीर स्वामी के पास आए । फिर उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना - नमस्कार करके इस प्रकार पूछा- भगवन् ! माकन्दिपुत्र अनगार ने हमसे कहा यावत् प्ररूपणा की कि कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। हे भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ?' भगवान महावीरने उन श्रमण निर्ग्रन्थों से कहा- आर्यो ! माकन्दिपुत्र अनगारने जो तुमसे कहा है, यावत् प्ररूपणा की है, वह कथन सत्य है । आर्यों में भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ। इसी प्रकार कृष्णलेश्वी पृथ्वीकायिक जीव, कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकों में से मरकर यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। नीललेश्यी एवं कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक भी यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। पृथ्वीकायिक के समान अप्कायिक और वनस्पतिकायिक भी, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। यह कथन सत्य है। हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, यों कहकर उन श्रमणनिर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन- नमस्कार किया, और वे जहाँ माकन्दिपुत्र अनगार थे, वहाँ आए । उन्हें वन्दन - नमस्कार किया। फिर उन्होंने उनसे सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की।
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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