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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक कौटुम्बिक व्यवहारों में पूछने योग्य था, जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में चित्त सारथि का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत् चक्षुभूत था, यहाँ तक जानना चाहिए। वह कार्तिक श्रेष्ठी, एक हजार आठ व्यापारियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् पालन करता हुआ रहता था। वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् श्रमणोपासक था ।
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उस काल उस समय धर्म की आदि करने वाले अर्हत् श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर वहाँ पधारे; यावत् समवसरण लगा । यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उसके पश्चात् वह कार्तिक श्रेष्ठी भगवान के पदार्पण का वृत्तान्त सूनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ; इत्यादि । जिस प्रकार ग्यारहवें शतक में सुदर्शन श्रेष्ठी का वन्दनार्थ निर्गमन का वर्णन है, उसी प्रकार वह भी वन्दन के लिए नीकला, यावत् पर्युपासना करने लगा । तदनन्तर तीर्थंकर मुनिसुव्रत अर्हन्त ने कार्तिक सेठ को धर्मकथा कही; यावत् परीषद् लौट गई । कार्तिक सेठ, भगवान मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सूनकर यावत् अवधारण करके अत्यन्त हृष्ट-तुष्ट हुआ, फिर उसने खड़े होकर यावत् सविनय इस प्रकार कहा- भगवन् ! जैसा आपने कहा वैसा ही यावत् है । हे देवानुप्रिय प्रभो ! विशेष यह कहना है, मैं एक हजार आठ व्यापारी मित्रों से पूछूंगा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौपूँगा और तब में आप देवानुप्रिय के पास प्रव्रजित होऊंगा। (भगवान) देवानुप्रिय जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो ।
तदनन्तर वह कार्तिक श्रेष्ठी यावत् नीकला और वहाँ से हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था वहाँ आया। फिर उसने उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों को बुलाकर इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि मैंने अर्हन्त भगवान मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सूना है । वह धर्म मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा । हे देवानुप्रियो ! उस धर्म को सूनने के पश्चात् में संसार के भय से उद्विग्न हो गया हूँ और यावत् में तीर्थंकर के पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। तो हे देवानुप्रियो तुम सब क्या करोगे? क्या प्रवृत्ति करने का विचार है? तुम्हारे हृदय में क्या इष्ट है ? और तुम्हारी क्या करने की क्षमता (शक्ति) है ?' यह सूनकर उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों ने कार्तिक सेठ से इस प्रकार कहा-यदि आप संसारभय से उद्विग्न होकर गृहत्याग कर यावत् प्रव्रजित होंगे, तो फिर, देवानुप्रिय ! हमारे लिए दूसरा कौन-सा आलम्बन है ? या कौन-सा आधार है ? अथवा कौन-सी प्रतिबद्धता रह जाती है ? अतएव हे देवानुप्रिय । हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं, तथा जन्ममरण के चक्र से भयभीत हो चूके हैं। हम भी आप देवानुप्रिय के साथ अगारवास का त्याग कर अर्हन्त मुनिसुव्रत स्वामी के पास मुण्डित होकर अनगार- दीक्षा ग्रहण करेंगे। व्यापारी-मित्रों का अभिमत जानकर कार्तिक श्रेष्ठी ने उन १००८ व्यापारी मित्रों को इस प्रकार कहा- यावत् अपने-अपने घर जाओ, ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दो । तब एक हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिबिका में बैठकर कालक्षेप किये बिना मेरे पास आओ । कार्तिक सेठ का यह कथन उन्होंने विनय-पूर्वक स्वीकार किया और अपने-अपने घर आए । फिर उन्होंने विपुल अशनादि तैयार करवाया और अपने मित्र - ज्ञातिजन आदि को आमन्त्रित किया। यावत् उन मित्रज्ञातिजनादि के समक्ष अपने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा। फिर उन मित्र ज्ञाति स्वजन यावत् ज्येष्ठपुत्र से अनुमति प्राप्त की । फिर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिबिका में बैठे। मार्ग में मित्र, ज्ञाति, यावत् ज्येष्ठपुत्र के द्वारा अनुगमन किये जाते हुए यावत् वाद्यों के निनादपूर्वक अविलम्ब कार्तिक सेठ के समीप उपस्थित हुए।
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तदनन्तर कार्तिक श्रेष्ठी ने गंगदत्त के समान विपुल अशनादि आहार तैयार करवाया, यावत् मित्र ज्ञाति यावत् परिवार, ज्येष्ठपुत्र एवं एक हजार आठ व्यापारीगण के साथ उनके आगे-आगे समग्र ऋद्धिसहित यावत् वाद्य-निनादपूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ, गंगदत्त के समान गृहत्याग करके वह भगवान मुनि सुव्रत स्वामी के पास पहुँचा यावत् इस प्रकार बोला- भगवन् यह लोक चारों ओर से जल रहा हे, भन्ते यह संसार अतीव प्रज्वलित हो रहा है; यावत् परलोक में अनुगामी होगा । अतः मैं एक हजार आठ वणिकों सहित आप स्वयं के द्वारा प्रव्रजित होना और यावत् आप से धर्म का उपदेश-निर्देश प्राप्त करना चाहता हूँ । इस पर श्री मुनि सुव्रत तीर्थंकर ने एक हजार आठ वणिक् मित्रों सहित कार्तिक श्रेष्ठी को स्वयं प्रव्रज्या प्रदान की और यावत् धर्म का उपदेश निर्देश किया कि देवानुप्रियो ! अब तुम्हें इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार खड़े रहना चाहिए आदि, यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिए । एक हजार आठ व्यापारी मित्रों सहित कार्तिक सेठ ने भगवान मुनिसुव्रत अर्हन्त के इस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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