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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक निद्रा लेता है और प्रचला निद्रा भी लेता है। जिस प्रकार हँसने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर बतलाए गए हैं, उसी प्रकार निद्रा
और प्रचला-निद्रा के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर जान लेने चाहिए । विशेष यह है कि छद्मस्थ मनुष्य दर्शना-वरणीय कर्म के उदय से निद्रा अथवा प्रचला लेता है, जबकि केवली भगवान के वह दर्शनावरणीय कर्म नहीं है; इसलिए केवली न तो निद्रा लेता है, न ही प्रचलानिद्रा लेता है । शेष सब पूर्ववत् समझना।
भगवन् ! निद्रा लेता हुआ अथवा प्रचलानिद्रा लेता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ? गौतम! निद्रा अथवा प्रचला-निद्रा लेता हुआ जीव सात अथवा आठ कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध करता है । इसी तरह (एकवचन की अपेक्षा से) वैमानिक-पर्यन्त कहना चाहिए । जब उपर्युक्त प्रश्न बहुवचन की अपेक्षा से पूछा जाए, तब (समुच्चय) जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर कर्मबन्ध-सम्बन्धी तीन भंग कहना चाहिए। सूत्र-२२७
भगवन् ! इन्द्र (हरि)-सम्बन्धी शक्रदूत हरिनैगमेषी देव जब स्त्री के गर्भ का संहरण करता है, तब क्या वह एक गर्भाशय से गर्भ को उठाकर दूसरे गर्भाशय में रखता है ? या गर्भ को लेकर योनि द्वारा दूसरी (स्त्री) के उदर में रखता है? अथवा योनि से गर्भाशय में रखता है ? या फिर योनि द्वारा गर्भ को पेट में से बाहर नीकालकर योनि द्वारा ही (दूसरी स्त्री के पेट में) रखता है ? हे गौतम ! वह हरिनैगमेषी देव, एक गर्भाशय से गर्भ को उठाकर दूसरे गर्भाशय में नहीं रखता; गर्भाशय से गर्भ को लेकर उसे योनि द्वारा दूसरी स्त्री के उदर में नहीं रखता; तथा योनि द्वारा गर्भ को बाहर नीकालकर योनि द्वारा दूसरी स्त्री के पेट में नहीं रखता; परन्तु अपने हाथ से गर्भ का स्पर्श कर करके, उस गर्भ को कुछ पीड़ा न हो, इस तरीके से उसे योनि द्वारा बाहर नीकालकर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रख देता है।
भगवन् ! क्या शक्र का दूत हरिनैगमेषी देव, स्त्री के गर्भ को नखाग्र द्वारा, अथवा रोमकूप (छिद्र) द्वारा गर्भाशय में रखने या गर्भाशय से नीकालने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! हरिनैगमेषी देव उपर्युक्त रीति से कार्य करने में समर्थ है । वह देव उस गर्भ को थोड़ी या बहुत, किञ्चित्मात्र भी पीड़ा नहीं पहुंचाता । हाँ, वह उस गर्भ का छविच्छेद करता है, और फिर उसे बहुत सूक्ष्म करके अंदर रखता है, अथवा इसी तरह अंदर से बाहर नीकालता है। सूत्र - २२८
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी अतिमुक्तक नामक कुमार श्रमण थे । वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे । पश्चात् वह अतिमुक्तक कुमार श्रमण किसी दिन मूसलधार वर्षा पड़ रही थी, तब कांख में अपने रजोहरण तथा पात्र लेकर बाहर स्थण्डिल भूमिका में (बड़ी शंका निवारण) के लिए रवाना हुए।
तत्पश्चात् (बाहर जाते हुए) उस अतिमुक्तक कुमार श्रमण ने (मार्ग में) बहता हुआ पानी का एक छोटा-सा नाला देखा । उसे देखकर उसने उस नाले के दोनों ओर मिट्टी की पाल बाँधी । इसके पश्चात् नाविक जिस प्रकार अपनी नौका पानी में छोड़ता है, उसी प्रकार उसने भी अपने पात्र को नौकारूप मानकर, पानी में छोड़ा । फिर यह मेरी नाव है, यह मेरी नाव है, यो पात्रीरूपी नौका को पानी में प्रवाहित करते क्रीड़ा करने लगे । इस प्रकार करते हुए उस अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्थविरों ने देखा । स्थविर जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और निकट आकर उन्होंने उनसे पूछा (कहा)
भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी जो अतिमुक्तक कुमारश्रमण है, वह अतिमुक्तक कुमारश्रमण कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा ? हे आर्यो !' इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी उन स्थविरों को सम्बोधित करके कहने लगे- आर्यो ! मेरा अन्तेवासी अतिमुक्तक नामक कुमार श्रमण, जो प्रकृति से भद्र यावत् प्रकृति से विनीत है; वह अतिमुक्तक कुमारश्रमण इसी भव में सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा । अतः हे आर्यो ! तुम अतिमुक्तक कुमार श्रमण की हीलना मत करो, न ही उसे झिड़को न ही गर्हा और अवमानना करो । किन्तु हे देवानुप्रियो ! तुम अग्लानभाव से अतिमुक्तक कुमार श्रमण को स्वीकार करो, अग्लानभाव से उसकी सहायता करो, और अग्लानभाव से आहार-पानी से विनय सहित उसकी वैयावृत्य करो; क्योंकि अतिमुक्तक कुमारश्रमण (इसी भव में या संसार का) अन्त करने वाला है और चरम शरीरी है।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जान पर (तत्क्षण) उन स्थविर भगवंतों ने मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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