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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक देवयोनि का आयुष्य बाँधता है । जो जीव नरक का आयुष्य बाँधता है, वह सात प्रकार की नरकभूमि में से किसी एक प्रकार की नरकभूमि सम्बन्धी आयुष्य बाँधता है । यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी का आयुष्य बाँधता है । जो जीव तिर्यंचयोनि का आयुष्य बाँधता है, वह पाँच प्रकार के तिर्यंचों में से किसी एक प्रकार का तिर्यंच-सम्बन्धी आयुष्य बाँधता है । यथा-एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनि का आयुष्य इत्यादि । तिर्यंच के सभी भेदविशेष विस्तृत रूप से यहाँ कहने चाहिए । जो जीव मनुष्य-सम्बन्धी आयुष्य बाँधता है, वह दो प्रकार के मनुष्यों में से किसी एक प्रकार के मनुष्यसम्बन्धी आयुष्य को बाँधता है, जो जीव देवसम्बन्धी आयुष्य को बाँधता है, तो वह चार प्रकार के देवों में से किसी एक प्रकार का आयुष्य बाँधता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-५ - उद्देशक-४ सूत्र-२२५
भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य क्या बजाये जाते हुए वाद्यों (के) शब्दों को सूनता है? यथा शंख के शब्द, रणसींगे के शब्द, शंखिका के शब्द, खरमुही के शब्द, पोता के शब्द, परिपीरिता के शब्द, पणव के शब्द, पटह के शब्द, भंभा के शब्द, झल्लरी के शब्द, दुन्दुभि के शब्द, तत शब्द, विततशब्द, घनशब्द, शुषिरशब्द, इत्यादि बाजों के शब्दों को । हाँ, गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य बजाये जाते हुए शंख यावत्-शुषिर आदि वाद्यों के शब्दों को सुनता है।
भगवन् ! क्या वह (छद्मस्थ) उन शब्दों को स्पृष्ट होने पर सूनता है, या अस्पृष्ट होने पर भी सून लेता है ? गौतम! छद्मस्थ मनुष्य स्पृष्ट शब्दों को सूनता है, अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सूनता; यावत् नियम से छह दिशाओं से आए हुए स्पृष्ट शब्दों को सुनता है । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य आरगत शब्दों को सुनता है, अथवा पारगत शब्दों को सूनता है ? गौतम ! आरगत शब्दों को सूनता है, पारगत शब्दों को नहीं।
भगवन् ! जैसे छद्मस्थ मनुष्य आरगत शब्दों को सुनता है, किन्तु पारगत शब्दों को नहीं सुनता, वैसे ही, हे भगवन् ! क्या केवली भी आरगत शब्दों को ही सून पाता है, पारगत शब्दों को नहीं सून पाता ? गौतम ! केवली मनुष्य तो आरगत, पारगत अथवा समस्त दूरवर्ती और निकटवर्ती अनन्त शब्दों को जानता और देखता है । भगवन् इसका क्या कारण है ? गौतम! केवली पूर्व दिशा की मित वस्तु को भी जानता-देखता है, और अमित वस्तु को भी जानतादेखता है; इसी प्रकार दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा की मित वस्तु को भी जानता-देखता है तथा अमित वस्तु को भी जानता-देखता है । केवलज्ञानी सब जानता है और सब देखता है । केवली भगवान सर्वतः जानता-देखता है, केवली सर्वकाल में, सर्वभावों (पदार्थों) को जानता-देखता है । केवलज्ञानी के अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन होता है । केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन निरावरण होता है । हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि केवली मनुष्य आरगत और पारगत शब्दों को, यावत् सभी प्रकार के दूरवर्ती और निकटवर्ती शब्दों को जानता-देखता है। सूत्र-२२६
भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य हँसता है तथा उत्सुक (उतावला) होता है ? गौतम ! हाँ, छद्मस्थ मनुष्य हँसता तथा उत्सुक होता है । भगवन् ! जैसे छद्मस्थ मनुष्य हँसता है तथा उत्सुक होता है, वैसे क्या केवली भी हँसता और उत्सुक होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि केवली मनुष्य न तो हँसता है और न उत्सुक होता है ? गौतम ! जीव, चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से हँसते हैं या उत्सुक होते हैं, किन्तु वह कर्म केवली भगवान के नहीं हैं। इस कारण से यह कहा जाता है कि जैसे छद्मस्थ मनुष्य हँसता है अथवा उत्सुक होता है, वैसे केवली मनुष्य न तो हँसता है और न ही उत्सुक होता है।।
भगवन् ! हँसता हुआ या उत्सुक होता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ? गौतम ! सात प्रकार अथवा आठ प्रकार के कर्मों को बाँधता है। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना । जब बहुत जीवों की अपेक्षा पूछा जाए, तो उसके उत्तर में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोडकर कर्मबन्ध से सम्बन्धित तीन भंग कहना।
भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य निद्रा लेता हे अथवा प्रचला नामक निद्रा लेता है ? हाँ, गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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